________________
साम्भोजिक
स्त्रियां तथा दस प्रकार के नपुंसक - इन अड़तालीस प्रकार के निषिद्ध व्यक्तियों को निष्कारण दीक्षित न करना । • उत्तरगुणकल्प - उद्गम आदि दोषों से रहित भिक्षाग्रहण, समिति, गुप्ति आदि शीलांग (अथवा अठारह हजार शीलांग), क्षमा आदि श्रमणधर्म - इन उत्तरगुणों का समान रूप से पालन करने वाला सदृशकल्पी और पालन न करने वाला विसदृशता के कारण विसदृशकल्पी है। सदृशकल्पी का एक अन्य आदेश भी है - जो संविग्न है अथवा सांभोजिक है, वह सदृशकल्पी है । ३. संभोज के छह प्रकार : ओघ आदि
ओह अभिग्गह दाणग्गहणे अणुपालणाय उववाते । संवासम्मि य छट्ठो, संभोगविधी मुणेयव्वो ॥ ...... समणाणं समणीओ, भण्णति अणुपालणाए उ ॥ (व्यभा २३५०, २३६०)
संभोज के छह प्रकार हैं - १. ओघ २. अभिग्रह ३. दानग्रहण ४. अनुपालना ५. उपपात ६. संवास । साध्वियां इनमें से केवल अनुपालना संभोज से साधुओं की सांभोजिक हैं।
४. ओघ संभोज के बारह प्रकार ओघो पुण उहि सुत- भत्तपाणे, दावणाय निकाए य, कीकम्मस्स य करणे, समोसरण सन्निसेज्जा,
******** ******
बारसहा
य।
अंजलिपग्गहे त्ति अब्भुट्ठाणे त्ति यावरे ॥ वेयावच्चकरणे ति य । कधाए य पबंधणा ॥ ( व्यभा २३५१ - २३५३)
ओघ संभोज के बारह प्रकार हैं१. उपधि
५. दान
२. श्रुत
६. निकाचना
३. भक्तपान ४. अंजलिप्रग्रह
९. वैयावृत्त्यकरण
१०. समवसरण ११. सन्निषद्या
७. अभ्युत्थान
८. कृतिकर्मकरण १२. कथाप्रबन्ध ।
Jain Education International
० उपधि संभोज के स्थान, विसंभोजविधि उवहिस्स य छब्भेदा, उग्गम-उप्पायणेसणासुद्धो । परिकम्मण-परिहरणा, संजोगो छट्टओ होति ॥
यत्साम्भोगिकस्य साम्भोगिकेन सममाधाकर्मादिभिः षोडशभिरुद्गमदोषैः शुद्धमुपधिमुत्पादयति एष उद्गम
आगम विषय कोश - २
शुद्ध उपधिसंभोगः, अशुद्धग्राही सांभोगिकः शिक्षमाणः सती मे प्रतिचोदनेति मन्यमानो मिथ्या - दुष्कृतपुरस्सरं न पुनरेवं करिष्यामीति ब्रुवाणः प्रत्यावर्तते, तदा यत्प्रायश्चित्तमापन्नस्तद्दत्वा संभोग्यते । एवं द्वितीयवारं तृतीयवारमपि, चतुर्थवेलायां त्वावर्त्तस्यापि न संभोगः । अथ निष्कारणे अन्यसां भोगिकेन समं शुद्धमशुद्धं वोपधिमुत्पादयति तर्हि सोऽपि यदि शिक्षमाणः व्यावर्त्तते ततः संभोगविषयीक्रियते, अन्यथा प्रथमवेलायामपि तस्य विसंभोगः । परिकर्मणा नाम यदुपधिमुचितप्रमाणकरणतः संयतप्रायोग्यं करोति..... सांभोगिकानां संयतीनामुपधिं विधिना संयतीप्रायोग्यं गणधरः परिकर्मयन् ददानश्च परिशुद्धः, परिहरणा नाम परिभोग : कारणे विधिना'''''सांभोगिकैः सममुपकरणं परिभुञ्जानः शुद्धः संयोगो द्वयादिपदानां मीलनं, तत्र भङ्गाः षड्विंशतिस्तद्यथा..सांभोगिकः सांभोगिकेन सममुद्गमेनोत्पादनया च शुद्धमुपधिमुत्पादयतीति प्रथमः ।" (व्यभा २३५४ वृ)
६०६
*****
सांभोजक साधुओं के साथ मर्यादा के अनुसार उपधि का ग्रहण करना उपधि संभोज है। इसके छह प्रकार हैं
१. उद्गमशुद्ध २. उत्पादनशुद्ध ३. एषणाशुद्ध ४. परिकर्मणा ५. परिहरणा और ६. संयोग ।
१. उद्गमशुद्ध संभोज - सांभोजिक सांभोजिक के साथ आधाकर्म आदि सोलह उद्गमदोषों से शुद्ध उपधि को प्राप्त करता है।
जिस दोष से अशुद्ध उपधि का उत्पादन करता है, उस दोष (आधाकर्म आदि) का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इस संदर्भ में भी यह व्यवस्था है - अशुद्धग्राही सांभोजिक को अनुशिष्टि दी जाती है, जिससे प्रेरित होकर वह मिथ्यादुष्कृत - पूर्वक (अपनी भूल स्वीकार कर), पुनः ऐसा नहीं करूंगा- ऐसा कहता हुआ उस दोष से निवृत्त हो जाता है तो उसे तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त देकर सांभोजिक के रूप में मान्य कर लिया जाता है। एक बार, दो बार, तीन बार तक अशुद्ध ग्रहण कर निवृत्त होने पर वह सांभोजिक है, चौथी बार ऐसी भूल करके निवृत्त होने पर भी उसे क्षम्य नहीं किया जाता, विसांभोजिक घोषित कर दिया जाता है।
जो निष्कारण अन्य सांभोजिक के साथ शुद्ध या अशुद्ध उपधि का उत्पादन करता है, वह भी अनुशासित करने पर दोष से निवृत्त हो जाता है तो साभोजिक है, अन्यथा प्रथम बार में ही उसको विसांभोजिक कर दिया जाता है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org