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सम्यक्त्व
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आगम विषय कोश-२
पच्चोरुहणट्ठा खाणुआतो चिट्ठति तत्थ एवावि। वर्तमान जीव वर्धमान परिणामधारा के कारण एक साथ मिथ्यात्व पक्खविहूणातों पिवीलियातो उडुंति उ सपक्खा॥ पुद्गलों के तीन पुञ्ज करता है-मिथ्यात्व पुद्गल, सम्यग्..."भवसिद्धिसलद्धीण य, पंखालपिवीलिया उवमा॥ मिथ्यात्व (मिश्र) पुद्गल और सम्यक्त्व पुद्गल।
कोऽपि मन्दाध्यवसायतया तीव्रविशोधिरहितोऽपूर्व- जब तक मिथ्यात्व क्षीण नहीं होता, तब तक सम्यक्त्वी करणेन ग्रन्थिभिदामाधातुमुद्यतः समुच्छलितघनरागद्वेष- नियमतः त्रिपुंजी होता है। मिथ्यात्वपुंज क्षीण होने पर द्विपुंजी, परिणामस्तत्रैव तिष्ठति, स्थित्वा च पुनः पश्चात्ततः मिश्रपुंज के क्षीण होने पर एक पुंजी और सम्यक्त्वपुंज के क्षीण होने प्रतिनिवर्त्तते।"भवसिद्धिका:-कतिपयभवमोक्षगामिनः। पर अपुंजी अर्थात् क्षपक हो जाता है। ......"सलब्धिः-उत्तरोत्तरविशुद्धाध्यवसायप्राप्तिर्येषां ते ० सम्यक्त्व-मिथ्यात्व पुद्गलों का संक्रमण सलब्धिकाः।
(बृभा १००, १०१, १०४ वृ) मिच्छत्ता संकंती, अविरुद्धा होति सम्म-मीसेसु। (अभव्य प्राणी ग्रन्थिदेश के पास आकर कैसे रुक जाते हैं?
मीसातो वा दुण्णि वि, ण उ सम्मा परिणमे मीसं॥ वहां से कैसे नीचे गिरते हैं? तथा भव्य प्राणी ग्रंथि को भेदकर
हायंते परिणामे, न कुणति मीसे उ पोग्गले सम्मे। आगे कैसे चले जाते हैं ?)
न य सोहिया से विजंति केइ जे दाणि वेएज्जा॥ कछ पिपीलिकाएं सहजभाव से बिल से निकलकर इधर
सम्मत्तपोग्गलाणं, वेदेउं सो य अंतिमं गासं। उधर जाने लगीं। कुछ पिपीलिकाएं अपर्व प्रयत्न के द्वारा एक
पच्छाकडसम्मत्तो, मिच्छत्तं चैव संकमति॥ स्थाणु पर चढ़ गईं। उनमें से भी पंखविहीन चींटियां स्थाण पर ही
(बृभा ११४-११६) ठहर जाती हैं, फिर उससे नीचे आ जाती हैं। पंखयुक्त चींटियां मिथ्यात्व पुद्गलों का सम्यक्त्व और मिश्र (सम्यग्आकाश में उड़ जाती हैं।
मिथ्यात्व) के पदगलों में संक्रमण हो सकता है। मिश्र पदगलों इसी प्रकार तीव्र विशोधिरहित कोई प्राणी मन्द अध्यवसाय का सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के पुद्गलों में संक्रमण हो सकता से अपूर्वकरण के द्वारा ग्रन्थिभेद के लिए उद्यत होता है, किन्तु है। सम्यक्त्व के पुद्गलों का मिश्र में संक्रमण नहीं होता। सघन राग-द्वेष के परिणामों के कारण ग्रन्थि के पार्श्व देश में ही
सम्यक्त्वप्राप्ति काल में जिसकी परिणामधारा हीयमान स्थित हो जाता है, फिर वहां से लौट आता है।
होती है, वह मिश्र तथा मिथ्यात्व के पुद्गलों को सम्यक्त्व में जो प्राणी भवसिद्धिक-कुछेक भवों के बाद मोक्ष जाने वाले संक्रांत नहीं करता और न उसके कोई पूर्वशोधित अन्य पदगल तथा सलब्धिक-उत्तरोत्तर विशुद्ध अध्यवसाय वाले होते हैं, उनको होते हैं, जिनका सम्यक्त्व-निष्ठाकाल में वेदन कर सके। पंखों वाली पिपीलिकाओं की उपमा दी गई है।
पश्चात्कृतसम्यक्त्वी सम्यक्त्व पुदगलों के अंतिम अंश का वेदन * अपूर्वकरण..."ग्रंथिभेद द्र श्रीआको १ करण कर मिथ्यात्व में संक्रमण करता है। ४. सम्यक्त्व प्राप्ति : त्रिपुंजी. अपुंजी
५. सम्यक्त्वप्राप्ति का एक हेतु : जातिस्मृति सोऊण अहिसमेच्च व, करेइ सो वड्डमाणपरिणामो। ये स्वयम्भूरमणसमुद्रे मत्स्यास्ते प्रतिमासंस्थितान् मिच्छे सम्मामिच्छ, सम्मे वि य पोग्गले समयं ॥ मत्स्यान् उत्पलानि वा दृष्ट्वेहाऽपोहादि कुर्वन्तो जातिमिच्छत्तम्मि अखीणे, तेपुंजी सम्मदिट्टिणो नियमा। स्मरणतः सम्यक्त्वमासादयन्ति। (बृभा १२५ की वृ) खीणम्मि उ मिच्छत्ते, दु-एकपुंजी व खवगो वा॥
जो स्वयंभूरमण समुद्र में मत्स्य हैं, वे प्रतिमासंस्थित मत्स्यों (बृभा १११, ११७) अथवा उत्पलों को देखकर ईहा, अपोह और मार्गणा करते हुए केवली आदि की वाणी को सुनकर अथवा जातिस्मरण जातिस्मृति (पूर्वजन्मों का ज्ञान) प्राप्त कर उससे सम्यक्त्व को आदि के द्वारा सम्यक्त्व के स्वरूप को जानकर अपूर्वकरण में प्राप्त करते हैं।
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