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आगम विषय कोश- २
६. सम्यक्त्वप्राप्ति और ज्ञान
विभंगी उ परिणमं, सम्मत्तं लहति मतिसुतोहीणि । तइभावम्मि मति-सुते,
॥
(बृभा १२५ ) विभंगज्ञानी सम्यक्त्व में परिणत होता हुआ तत्काल तीन ज्ञान प्राप्त करता है - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान । विभंगज्ञान से रहित मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्व में परिणत होता हुआ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान प्राप्त करता है।
• सम्यक्त्व का हेतु : अपाय आभिणिबोहमवायं, वयंति तप्पच्चयाउ सम्मत्तं । जा मणपज्जवनाणी, सम्मद्दिट्ठी उ केवलिणो ॥ ....... आभिनिबोधिक भेदो योऽपायो यद्वशाद् यथावस्थितार्थविनिश्चयस्तं सम्यक्त्वस्य प्रत्ययं वदन्ति पूर्वसूरयः, सम्यग्ज्ञाने सम्यक् श्रद्धानभावात् । अपायप्रत्ययाच्च सम्यक्त्वं तावदवसेयं यावन्मनः पर्यायज्ञानिनः ततः परमपायस्याभावात् । केवलिनः केवलज्ञानप्रत्ययादेव सम्यग्दृष्टयः । (बृभा ८९ वृ)
आभिनिबोधिक ज्ञान का जो अपाय भेद है जिससे यथावस्थित अर्थ का विनिश्चय होता है- पूर्व आचार्य अपाय को सम्यक्त्व का प्रत्यय - हेतु बताते हैं, क्योंकि सम्यग्ज्ञान सम्यक् श्रद्धान होता है। सम्यक्त्व का यह हेतु मति - श्रुत- अवधि - मनः पर्यवज्ञान पर्यंत होता है। उससे आगे अपाय का अभाव है । केवलज्ञानी केवलज्ञान के प्रत्यय से ही सम्यग्दृष्टि होते हैं ।
(दो शब्द हैं - सम्यग्दर्शन और सम्यग्दृष्टि । अपायसद्द्रव्य की अपेक्षा (पाय आभिनिबोधप्रत्ययिक) सम्यग्दर्शन सादिसांत है । सम्यग्दृष्टि सादि अनंत है । केवली और सिद्ध सादिअनंत सम्यग्दृष्टि हैं । - तसू १ / ७, ८ भा)
७. मिथ्यात्वप्राप्ति के हेतु और दृष्टांत मतिभेदेण जमाली, पुव्वग्गहितेण होति गोविंदो । संसग्गि साव भिक्खू, गोट्ठामाहिलऽभिनिवेसेणं ॥ (व्यभा २७१४)
चार कारणों से जमाली आदि मिथ्यादृष्टि बनेकारण व्यक्ति कारण
१. मतिभेद जमाली ३. संसर्ग २. पूर्वाग्रह गोविन्द
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४. अभिनिवेश
व्यक्ति श्रावक गोष्ठामाहिल
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सम्यक्त्व
गोविंदो णाम भिक्खू । सो एगेणायरिएण वादे जितो अट्ठारस वारा । ततो तेण चिंतियं सिद्धंतरूवं जाव एतेसिं ण लब्धति ताहे ते जेतुं न सक्केंतो ताहे सो णाणावरणहर तस्सेवायरियस्स अंते णिक्खंतो। तस्स य सामाइयादि पढेंतस्स सुद्धं सम्मत्तं तेण सब्भावो कहितो। ताहे गुरुणा दत्ताणि से वयाणि । (निभा ३६५६ की चू)
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गोविन्द - गोविंद नामक एक बौद्ध भिक्षु थे। वे एक जैन आचार्य द्वारा वाद-विवाद में अठारह बार पराजित हुए। पराजय से दुःखी होकर उन्होंने सोचा कि जब तक मैं इस सिद्धान्त को नहीं जानूंगा, तब तक इन्हें जीत नहीं सकता। इसलिए अपने ज्ञानावरण को दूर करने के लिए उसी आचार्य के पास दीक्षित हुए, सामायिक आदि ग्रंथों का अध्ययन करते हुए उनका सम्यक्त्व शुद्ध हो गया। गोविंद मुनि ने सरलतापूर्वक अपने दीक्षित होने का मूल प्रयोजन गुरु को बतला दिया, तब गुरु ने उन्हें व्रतदीक्षा दी।
..... वायपराइओ वा से, संखडिकरणं च वित्थिपणं ॥ कइतवधम्मक धाए, आउट्टो बेति भिक्खूगाणट्ठा । परमण्णमुवक्खडियं, मा जातु असंजयमुहाई ॥ तं कुणहऽणुग्गहं मे, साहूजोग्गेण एसणिज्जेण । पडिलाभणा विसेणं, पडिता पडिती य सव्वेसि ॥ भिक्षूपासकः कोऽपि वादे पराजितः कथय मे भगवन्नार्हतं धर्मम् । (व्यभा २३८२-२३८४ वृ)
० भिक्षु-उपासक - एक बार कोई भिक्षु-उपासक वाद में पराजित हो गया। वह छलपूर्वक आचार्य के पास जाकर बोला- भंते! मुझे अर्हत् धर्म का उपदेश दें। आचार्य ने उपदेश दिया। उसने कपटपूर्वक कहा- मैंने आर्हत धर्म स्वीकार कर लिया है। फिर उसने प्रार्थना की - मैंने भिक्षुओं के निमित्त एक बड़ा जीमनवार किया है, जिसमें पकाया गया परमान्न असंयती के मुंह में न चला जाए, इसलिए आप मुझ पर अनुग्रह कर मुनियों को भेजें, मैं साधु योग्य एषणीय आहार दूंगा। मुनि गोचरी गए। उसने विषमिश्रित परमान्न का भोजन दिया। मुनि उसको खाकर मृत्यु को प्राप्त हुए।
( ० जमालि - एक बार मुनि जमालि रुग्ण हो गया। उसने श्रमणों से कहा- मेरा बिछौना करो। वे करने लगे। अधीरता से पूछा- क्या बिछौना कर दिया ? श्रमणों ने कहा— किया नहीं है,
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