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आगम विषय कोश - २
६०१
त् वासुदेवा णत्थि सुकडदुक्कडाणं फलवित्तिविसेसे, णो सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति, णो दुचिण्णा कम्मा दुचिणफला भवंति, अफले कल्लाणपावए,' णो पच्चायंति जीव, णत्थि णिरयादिह्न णत्थि सिद्धी । से एवंवादी एवंपणे एवं दिट्ठी एवंछंदरागमभिनिविट्टे यावि भवति । से य भवति महिच्छे महारंभे महापरिग्गहे अहम्मिए .... |
.... दाहिणगामिए नेरइए किण्हपक्खिते आगमेस्साणं दुल्लभबोधिते यावि भवति । (दशा ६/३, ६) जो नास्तिकवादी, नास्तिकप्रज्ञ और नास्तिकदृष्टि है। जो सम्यग्वादी, नित्यंवादी और परलोकवादी नहीं है। न इहलोक है, न परलोक है, न माता है, न पिता है, न अरिहंत है, न चक्रवर्ती है, न बलदेव है, न वासुदेव है, सुकृत और दुष्कृत कर्मों का विशिष्ट फल नहीं होता, न सुचीर्ण कर्म सुचीर्ण फल देते हैं, न दुश्चीर्ण कर्म दुश्चीर्ण फल देते हैं, कल्याण और पाप अफल हैं, जीव का पुनर्जन्म नहीं होता, न नरक आदि चारों गतियां हैं और न सिद्धि है, जो इस प्रकार कहता है, जो ऐसी प्रज्ञा और ऐसी दृष्टि वाला है, जो इस प्रकार के छंद और राग (इच्छालोभ और तीव्र अभिनिवेश) से अभिनिविष्ट होता है, वह अक्रियावादी है । वह वैभव आदि की प्रबल इच्छा वाला, महाहिंसाकर्मी, महापरिग्रही और अधार्मिक होता है। वह दक्षिण दिशा में जाने वाला, नरक में उत्पन्न होने वाला, कृष्ण पाक्षिक और भविष्यकाल में दुर्लभबोधिक होता है। ११. क्रियावादी - शुक्लपक्षी
किरियावादी णियमा भविओ नियमा सुक्कपक्खिओ | अंतोपुग्गलपरियट्टस्स नियमा सिज्झिहिति, सम्मट्ठी वा मिच्छदिट्ठी वा होज्ज । (दशा ६/३ की चू)
क्रियावादी नियमतः भव्य और शुक्लपक्षी होता है । वह पुद्गलपरावर्त्त के भीतर-भीतर नियमतः सिद्ध हो जाता है, चाहे सम्यग्दृष्टि हो या मिथ्यादृष्टि ।
किरियावादी यावि भवति, तं जहा- आहियवादी आहियपणे आहियदिट्ठी सम्मावादी नीयावादी संतिपरलोगवादी अत्थि इहलोगे अत्थि परलोगे अत्थि माता अस्थि पिता अस्थि अरहंता अत्थि चक्कवट्टी अत्थि बलदेवा अत्थि वासुदेवा अत्थि सुकडदुक्कडाणं फलवित्तिविसेसे, सुचिण्णा
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सम्यक्त्व
कम्मा सुचिण्णफला भवंति दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति, सफले कल्लाणपावए, पच्चायंति जीवा, अतिथ निरयादिह्व अत्थि सिद्धी । से एवंवादी एवंपण्णे एवंदिट्ठीच्छंदरागमभिनिविट्टे आवि भवति । से य भवति महिच्छे जाव उत्तरगामिए नेरइए सुक्कपक्खिते आगमेस्साणं सुलभबोधिते यावि भवति । (दशा ६/७ ) क्रियावादी होता है, जैसे- आस्तिकवादी, आस्तिकप्रज्ञ, आस्तिकदृष्टि, सम्यग्वादी, नित्यवादी, अस्तिपरलोकवादी, इहलोक है, परलोक है, माता है, पिता है, अर्हत् है, चक्रवर्ती है, बलदेव है, सुकृत- दुष्कृत कर्मों का विशिष्ट फल है, सुचीर्ण कर्म सुचीर्ण फल वाले होते हैं, दुश्चीर्ण कर्म दुश्चीर्ण फल वाले होते हैं । कल्याणकर्म और पापककर्म सफल होते हैं, जीवों का पुनर्जन्म होता है, नरक आदि चार गतियां हैं, सिद्धि है - जो इस प्रकार कहता है, इस प्रकार की प्रज्ञा से संपन्न है, इस प्रकार की दृष्टि, छंद और राग से अभिनिविष्ट है, वैभव आदि की प्रबल इच्छा वाला, महारंभी और महापरिग्रही है, वह उत्तर दिशा में जाने वाला, नरक में उत्पन्न होने वाला, शुक्लपाक्षिक और भविष्यकाल सुलभबोधिक होता है ।
( जब तक जिस जीव की मोक्ष की अवधि निश्चित नहीं होती, तब तक वह कृष्ण पक्ष की कोटि में होता है और मोक्ष की अवधि की निश्चितता होने पर जीव शुक्ल पक्ष की कोटि में आ जाता है। जो जीव अपार्धपुद्गलपरावर्त्त तक संसार में रहकर मुक्त होता है, वह शुक्लपाक्षिक और इससे अधिक अवधि तक संसार में रहने वाला कृष्णपाक्षिक कहलाता है । —स्था १ / १८७ वृ जो व्यक्ति क्रूरकर्मा होता है, जो साधुओं की निन्दा में रस लेता है, ,.... वह दाक्षिणात्य नरक में, तिर्यञ्च योनियों में, मनुष्यों में या देवों में उत्पन्न होता है। —सू २/२/३१ वृ जीव तीन प्रकार के बतलाये गये हैं
१. परीत २. अपरीत ३. नोपरीत-नोअपरीत ।
परीत दो प्रकार का होता है- कायपरीत और संसारपरीत । कायपरीत कायपरीत के रूप में जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः असंख्यकाल तक रहता है । संसारपरीत संसारपरीत के रूप में जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्टतः अनन्तकाल - कुछ कम अपार्धपुद्गल परिवर्त तक रहता है।
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