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आगम विषय कोश - २
तीर्थंकर साधर्मिक नहीं जातित्थगराण कता, वंदणया वरिसणादि पाहुडिया । भत्तीहि सुरवरेहिं समणाण तधिं कहं भणियं ॥ जइ समणाण न कप्पति, एवं एगाणिया जिणवरिंदा । गणरमादी समणा, अकप्पिए नेव चिट्ठेति ॥ तम्हा कप्पति ठाउं, जह सिद्धायणम्मि होति अविरुद्धं । जम्हा उ न साहम्मी, सत्था अम्हं ततो कप्पे ॥ साहम्मियाण अट्ठे, चउव्विधो लिंगतो जह कुडुंबी । मंगलसासयभत्तीय, जं कतं तत्थ आदेसो ॥ (व्यभा ३७६८-३७७१ ) देव अर्हतों को भक्तिपूर्वक वन्दन, पुष्पवृष्टि, प्राकारत्रिकरचना आदि प्राभृतिका करते हैं। साधु वहां कैसे रह सकते हैं ? गणधर आदि श्रमण अकल्प्य स्थान में नहीं रहते। यदि श्रमण वहां न रहें तो तीर्थंकर अकेले रह जायेंगे ।
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सिद्धायतन की भांति समवसरण में साधुओं का अवस्थान भी अविरुद्ध है। क्योंकि तीर्थंकर श्रमणों के साधर्मिक नहीं हैं । साधर्मिकों के लिए कृत स्थान कल्पनीय नहीं है । साधर्मिक के लिंग आदि चार प्रकार । तीर्थंकर लिंग से असाधर्मिक हैं, जैसे कुटुंब | मंगलनिमित्त और शाश्वत (मोक्ष) - निमित्त समवसरण आदि की भक्तिपूर्वक रचना की जाती है, वहां रहने की अनुज्ञा है।
सामाचारी - मुनिसंघ का व्यवहारात्मक आचार ।
१. दशविध सामाचारी
* जिनकल्प और सामाचारी
* वसति प्रवेश की सामाचारी
* साधु-साध्वी : पारस्परिक व्यवहार
२. असामाचारी निष्पन्न प्रायश्चित्त
३. समाचरण में स्खलना असमाधिस्थान
० समाधि के प्रकार
४. बीस असमाधिस्थान
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द्रुतगति से चलना असमाधि स्थान
५. असमाधिस्थान बीस ही क्यों ?
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द्र जिनकल्प
द्र शय्या
द्र स्थविरकल्प
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१. दशविध सामाचारी
इच्छा मिच्छा तहक्कारे, आवस्सि निसीहिया य आपुच्छा । पडिपुच्छ छंदण निमंतणा य उवसंपया चेव ॥
सामाचारी
ओहेण दसविहं पि य, सामायारिं न ते परिहवंति।" (बृभा १६२३, १६२७)
सामाचारी के दस प्रकार हैं- १. इच्छाकार २. मिथ्याकार ३. तथाकार ४. आवश्यकी ५. नैषेधिकी ६. आपृच्छा ७. प्रतिपृच्छा ८. छन्दना ९ निमन्त्रणा १० उपसम्पदा ।
स्थविरकल्पी सामन्यतः इस दसविध सामाचारी की परिहानि नहीं करते ।
* सामाचारी का विवरण
द्र श्रीआको १ सामाचारी
२. असामाचारीनिष्पन्न प्रायश्चित्त
अचित्ते पुढविक्काते पुत्तलगादि करेति, एत्थ वि असामायारिणिप्फण्णं मासलहुं । (निभा १६१ की चू)
कोई मुनि चित्त मिट्टी से पुरुष का पुतला आदि बनाता है तो हिंसा न होने पर भी उसे मासलघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता हैयह असामाचारीनिष्पन्न प्रायश्चित्त है ।
आवस्सिया णिसीहिय, पमज्जासज्ज अकरणो इमं तु । पणगं पणगं लहु
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( निभा २११ )
उपाश्रय से निष्क्रमण करते समय 'आवस्सई' और उसमें प्रवेश करते समय 'निस्सही' का उच्चारण नहीं करने पर पांच-पांच अहोरात्र तथा जाते-आते समय प्रमार्जन नहीं करने पर मासलघु प्रायश्चित्त आता है।
३. समाचरण में स्खलना : असमाधिस्थान
जेणाssसेवितेण आतपरोभयस्स वा इह परत्र उभयत्र वा असमाधी होति तं असमाधिद्वाणं । (दशानि ८ की चू)
जिस आचरण से स्वयं के या दूसरे के इहलोक में, परलोक में या उभयलोक में असमाधि होती है, उसे असमाधिस्थान अथवा असमाधिपद कहा जाता है।
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० समाधि के प्रकार
दव्वं जेण व दव्वेण, समाधी आहितं च जं दव्वं । जीवस्स भावो सुसमाहितया, पसत्थजोगेहिं ॥ (दशानि ९ )
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