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आगम विषय कोश-२
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सम्यक्त्व
ही जो तत्त्वों का अवबोध है, वह ज्ञान है और अवगत तत्त्वों में जो उववाएण व सायं, नेइओ देवकम्मुणा वा वि। परम श्रद्धा-आत्मा का परिणामविशेष है, वह सम्यग् दर्शन है, अज्झवसाणनिमित्तं, अहवा कम्माणुभावेणं ।। जिसके द्वारा उस ज्ञान को रुच्यात्मक किया जाता है।
नैरयिकः उपपातकाले सातमनुभवति तदानीं हि
न तस्य क्षेत्रजा वेदना न परस्परोदीरिता नापि परमाधार्मिको२. सम्यक्त्व के प्रकार
दीरितेति। देवो हि कश्चिन्महर्द्धिकः पूर्वभवस्नेहतस्तत्र गत्वा उवसमियं सासायण, खओवसमियं च वेदगं खइयं।....
कस्यापि कञ्चित्कालं वेदनामुपशमयति, ततः सातं वेदयते... (बृभा ९०)
तथाविध शुभाध्यवसायप्रवृत्तिनिमित्तं सातमासादयति, सम्यक्त्व के पांच प्रकार हैं- औपशमिक, सास्वादन, यथा""सम्यग्दर्शनलाभे हि जात्यन्धस्य चक्षुर्लाभ इव जायते क्षायोपशमिक, वेदक और क्षायिक सम्यक्त्व।
महान् प्रमोदः। "कर्मणां सातवेदनीयप्रभृतीनां शुभानाम् * पंचविध सम्यक्त्व का स्वरूप द्र श्रीआको १ सम्यक्त्व
अनुभावः..."उदयेन वेदनं तेन सातमनुभवति। तथाहि
भगवतां तीर्थकृतां जन्मनि दीक्षायां ज्ञाने च तत्प्रभावतो ० औपशमिक सम्यक्त्व : मिथ्यात्वमोह का अनुदय उवसामगसेढिगयस्स होति उवसामियं तु सम्मत्तं।
नरकेऽप्यालोको जायते, नैरयिकाणामपि च शुभकर्मोदयजो वा अकयतिपुंजो, अखवियमिच्छो लहइ सम्मं ॥
प्रसरतः सातमिति।
(बृभा १२३, १२४ ) वाही असव्वछिन्नो, कालाविक्खंकुरु व्व दड्ढदुमो।
सम्यक्त्वप्राप्ति काल में वेदनीय आदि शेष कर्मों का भी उवसामगाण दोण्ह वि, एते खलु होति दिटुंता॥
उदय मंद हो जाता है। सूत्र (ग्रंथांतर) में कथन है कि नैरयिक ऊसरदे पं च विज्झाइ वणदवो पप्प।
जीव उपपात आदि के समय सातकर्म का अनुभव करते हैं। चार इय मिच्छस्स अणुदए, उवसमसम्मं मुणेयव्वं ॥ स्थानों से नैरयिक सात का अनुभव करता है
१. उपपात-जन्म के समय उसके क्षेत्रजा वेदना, परस्पर उदीरित (बृभा ११८, ११९, १२२) ।
वेदना और परमाधार्मिक द्वारा उदीरित वेदना नहीं होती। औपशमिक सम्यक्त्वप्राप्ति के दो स्थान हैं-१. उपशमश्रेणि
२. देवकर्म-कोई महर्द्धिक देव पूर्वभव के स्नेह के कारण नरक में में आरूढ व्यक्ति औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है।
जाकर कुछ समय के लिए किसी की वेदना को उपशांत कर देता २. अक्षीण मिथ्यात्व वाला व्यक्ति, जो अपूर्वकरण में मिथ्यात्व
है, तब वह सात का वेदन करता है। पुद्गलों के तीन पुंज (शुद्ध, मिश्र, अशुद्ध) नहीं करता, वह
३. अध्यवसान-नैरयिक शुभ अध्यवसाय के निमित्त से सुख प्राप्त औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है।
करता है। यथा-सम्यक्त्वप्राप्ति के समय उसे महान् हर्ष होता है, द्विविध उपशमी अंतर्मुहूर्त तक उपशम सम्यक्त्व का अनुभव
मानो जन्मान्ध व्यक्ति को आंख मिल गई हो। कर तत्पश्चात् अवश्य गिरते हैं। जैसे पूर्ण रूप से अक्षीण व्याधि
१. कर्म-अनुभाव-सातवेदनीय आदि शुभ कर्मों के उदय से वह समय पाकर पुनः उद्भूत हो जाती है, दग्ध वृक्ष समय पाकर पुनः
सुख का अनुभव करता है। जैसे-तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा, अकुारत हा जाता ह, वस हा उपशामत मिथ्यात्व अतमुहूत्त पश्चात् कैवल्यप्राप्ति और निर्वाण के अवसर पर उनके प्रभाव से नरक में पुनः उदित हो जाता है।
भी आलोक होता है, तब नैरयिकों को भी शुभ कर्मोदय के योग से औपशमिकसम्यक्त्व में मिथ्यात्वपुद्गलों का अभाव होने
सुख होता है। से मिथ्यात्व का वेदन नहीं होता। जैसे दावानल तृण आदि से
(चार कारणों से मनुष्यलोक और देवलोक में उद्योत होता रहित प्रदेश अथवा दग्ध भूमि को प्राप्त कर बुझ जाता है। है-अर्हन्तों के जन्म, दीक्षा, कैवल्यप्राप्ति और परिनिर्वाणमहोत्सव ० शेष कर्मों का मंद अनुभाव : नैरयिक दृष्टांत
पर।-स्था ४/४३६, ४३८) जिम्हीभवंति उदया, कम्माणं अस्थि सुत्त उवदेसो। ३. भव्य-अभव्य और ग्रंथिभेद उववायादी सायं, जह नेरइया अणुभवंति॥ अहभावेण पसरिया, अपुव्वकरणेण खाणुमारूढा।....
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