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आगम विषय कोश-२
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समिति
जो भिक्षु चौथी पौरुषी के चौथे भाग में उच्चार-प्रस्रवण उत्तर पुव्वा पुज्जा, जम्माएँ निसीयरा अभिवडंति। भूमि का प्रतिलेखन नहीं करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त घाणारसा य पवणे, सूरिय गामे अवन्नो उ॥ आता है।
संसत्तग्गहणी पुण, छायाए निग्गयाएँ वोसिरइ। पासवणुच्चारादीण भूमीओ जो तओ उ पडिलेहे। छायाऽसति उण्हम्मि वि, वोसिरिय मुहुत्तगं चिढ़े। अंतो वा बाहिं वा, अहियासिं वा अणहियासिं॥
(बृभा ४४१, ४५६-४५८) अंतो णिवेसणस्स काइयभूमीओ अणहियासियाओ .."तिण्हं णावापूराणं आयमति ॥ (नि ४/११७) तिन्नि-आसन्न मज्झ दूरे। अहियासियाओ वि तिन्नि- मुनि उत्सर्ग के लिए गुरु को पूछकर प्रथम स्थण्डिल आसन्न मज्झ दूरे।"बहिं णिवेसणस्स एवं चेव छ काइयभूमीओ (अनापात-असंलोक) में जाए, समश्रेणी में युगल रूप में न चले, एवं पासवणे बारस, सण्णाभूमीओ वि बारस, एवं च ताओ त्वरित गति से न चले, चलते समय कथा-विकथा न करे। दिशा सव्वाओ चउव्वीसं।"" कयाति एक्कस्स वाघातो भवति तो आदि का अवलोकन करेबितियादिसु परिट्ठविज्जति। (निभा १८६० चू) दिशा-पूर्व और उत्तरदिशा लोक में पूज्य मानी जाती है। अत:
मनि उच्चार-प्रस्रवण-परिष्ठापन के लिए तीन भूमियों की दिन या रात में उस दिशा में पीठ करके न बैठे। निशाचरों के प्रतिलेखना करता है। कायिकी भूमि के दो प्रकार हैं-अध्यासिका आवागमन के कारण रात्रि में दक्षिण में पीठ न करे। कहा भी हैऔर अनध्यासिका। इन दोनों के तीन-तीन प्रकार हैं-निकट, मध्य उभे मूत्र-पुरीषे तु, दिवा कुर्यादुदङ्मुखः । और दूर। प्राचीनकाल में उपाश्रय के भीतर छह और बाहर भी रात्रौ दक्षिणतश्चैव, तथा चाऽऽयुर्न हीयते ॥ छह-इस प्रकार बारह कायिकी भूमियों की प्रतिलेखना की जाती ० पवन-सूर्य-ग्राम-वायु के वेग की ओर पीठ करके बैठने से थी। इसी प्रकार बारह संज्ञाभूमियां होती थीं। कुल चौबीस भूमियों अशुभ गंधद्रव्य नासिका में प्रविष्ट हो सकते हैं । सूर्य और ग्राम की की प्रतिलेखना की जाती थी। इतनी भूमियों का निरीक्षण इसलिए ओर पीठ करने से लोक में अवज्ञा होती है। किया जाता था कि एक में बाधा उपस्थित होने पर दूसरी, तीसरी ० छाया-जिस मुनि की कुक्षि में कृमि आदि द्वीन्द्रिय जीव हों, आदि निर्बाध भूमि का उपयोग किया जा सके।
वह वृक्ष आदि की छाया में मलोत्सर्ग करे। मध्याह्न में यदि ० समाधिपात्र
मलोत्सर्ग करना हो और छाया न हो तो धूप में भी शरीर की छाया
में मलोत्सर्ग करे और कुछ क्षणों तक वहीं बैठा रहे। से भिक्खू"सपाययं वा परपाययं वा गहाय से तमा
० प्रमार्जन-भूमि का तीन बार प्रतिलेखन-प्रमार्जन करे। याए एगंतमवक्कमेज्जा अणावायंसि असंलोयंसि“उच्चारपासवणं परिठ्ठवेज्जा॥
० अनुज्ञा- 'जिसका स्थान है, वह अनुमति दे'-इस प्रकार पात्रकं समाधिस्थानं गृहीत्वा स्थण्डिलं... गत्वा
स्थानाधिपति की अनुज्ञा लेकर व्युत्सर्ग करे। प्रस्रवणं परिष्ठापयेत्।
o आचमन-तीन चुलुक से शुद्धि करे। (आचूला १०/२८ वृ)
६. चंचल : गतिचंचलता आदि समिति नही भिक्षु अपने अथवा दूसरे के पात्र-समाधिपात्र को लेकर
गइ-ठाण-भास-भावे एकांत में जाए, अनापात-असंलोक स्थण्डिल में मल-मूत्र का
दावद्दविओ गइचंचलो उ ठाणचवलो इमो तिविहो। परिष्ठापन करे।
कुड्डादऽसई फुसइ व, भमइ व पाए व विच्छु भइ॥ ० उत्सर्ग-विधि : दिशा आदि
भासाचपलो चउहा, अस त्ति अलियं असोहणं वा वि। अजुयलिया अतुरिया, विगहारहिया वयंति पढमं तु।... असभाजोग्गमसब्भं, अणूहिउं तं तु असमिक्खं ॥ दिसि-पवण-गाम-सूरिय-छायाएँ पमज्जिऊण तिक्खुत्तो।। कजविवत्तिं दर्दू, भणाइ पुट्वि मए उ विण्णायं। जस्सुग्गहो त्ति काऊण वोसिरे आयमे वा वि॥ एवमिदं तु भविस्सइ, अदेसकालप्पलावी उ॥
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