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समिति
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आगम विषय कोश-२
ति वा, धम्मपिये ति वा-एयप्पगारं भासं असावजं जाव जिसने आचारचूला के 'उच्चार-प्रस्रवण सप्तैकक' नामक अभूतोवघाइयं अभिकंख भासेज्जा ॥ (आचूला ४/१२, १३) अध्ययन अथवा ओघनियुक्ति को पढ़ा है, सुना है, उसके अर्थ को
तर भिल अथवा मिश्रण को आरित करना अधिगत किया है और सूत्रोक्त विधि से स्थण्डिल संबंधी आचरण अथवा आमंत्रित कर चुकने पर (संबंधित व्यक्ति के) न सुनने पर
करता है, वह विचार-कल्पिक है। इस प्रकार न बोले-हे होल! हे गोल! हे वृषल! हे कुपक्ष
उल्लिखित अध्ययन पढ़ाये बिना विचारभूमि में अकेले (कुत्सित कुलोत्पन्न) ! हे घटदास (पानी लाने वाले) ! हे श्वान!
शिष्य को भेजने वाला गुरु चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है। हे चोर! हे गुप्तचर ! हे मायाविन्! हे मृषावादिन् ! तुम ऐसे हो,
सचित्त, आपातसंलोक आदि दोषों से युक्त अचित्त और तुम्हारे माता-पिता ऐसे हैं-इस प्रकार की सावध सक्रिय (हिंसा
मिश्र-इस त्रिविध स्थण्डिल का जो परिहारविषयक नौ भेदों से युक्त) यावत् भूतोपघातकारिणी भाषा को पर्यालोचन-पूर्वक न
परिहार करता है-वहां मनसा, वाचा, कर्मणा न स्वयं जाता है, न बोले । भिक्षु इस प्रकार बोले-हे अमुक ! हे आयुष्मन् ! हे श्रावक!
दूसरे को भेजता है और जाने वाले दूसरे का अनुमोदन भी नहीं
दूर हे उपासक! हे धार्मिक! हे धर्मप्रिय!-इस प्रकार की निरवद्य
करता है, वह विचारकल्पिक है। यावत् भूतोपघात न करने वाली भाषा सोच-विचार कर बोले। . विचारभूमि : उत्सर्गभूमि ० इह-परलोक-हितभाषी
सण्णावोसिरणं वियारभूमी। (नि २/४० की चू) वाहिविरुद्धं भुंजति, देहविरुद्धं च आउरो कणति। विचारभूमी द्विविधा-कायिकीभूमिः उच्चारभूमिश्च।। आयासऽकालचरियादिवारणं एहियहियं तु॥
(बृभा ३२०८ की वृ) सामायारी सीदंत चोयणा उज्जमंत संसा य। संज्ञाव्युत्सर्गभूमि को विचारभूमि कहा जाता है। उसके दारुणसभावयं चिय, वारेति परत्थहितवादी॥ दो प्रकार हैं-कायिकीभूमि और उच्चारभूमि ।
(व्यभा ६९, ७०) ५. उत्सर्ग समिति : प्रासुक स्थण्डिल कोई मुनि व्याधिविरुद्ध (व्याधिवर्धक) आहार करता है से भिक्ख वा भिक्खणी वा... अप्पंडं अप्पपाणं अप्पबीअं अथवा देहविरुद्ध आचरण करता है। एक मुनि शक्ति-सीमा का अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टियअतिक्रमण कर कोई कार्य करता है, अकालचर्या करता है-जो मक्कडासंताणयं, तहप्पगारंसि थंडिलंसि उच्चार-पासवणं मुनि दन कार्यों का निषेध करता है, वह इहलोक हितभाषी है।
वोसिरेज्जा।
(आचूला १०/३) जो सामाचारी के आचरण में विषण्ण मुनि को सही आचरण के लिए प्रेरित करता है, उद्यमशील की प्रशंसा करता है, दारुण
__ वह भिक्षु अथवा भिक्षुणी, जहां कीट-अण्ड, जीव-जन्तु,
बीज, हरित, ओस, उदक, चींटियों के बिल, फफूंदी, दलदल और स्वभाव का निवारण करता है, वह परलोक हितभाषी है।
मकड़ी के जाले न हों, वैसे स्थण्डिल में उच्चार-प्रस्रवण (मल४. विचारकल्पिक
मूत्र) का विसर्जन करे। पढिते य कहिय अहिगय, परिहरति वियारकप्पितो सो उ।
* स्थण्डिल के चार प्रकार
द्र श्रीआको १ समिति तिविहं तीहि विसुद्ध, परिहर नवगेण भेदेणं॥
सूत्रे सप्तसप्तकलक्षणे ओघनिर्यक्तिलक्षणे वा अप्राप्ते ० उच्चार-प्रस्रवणभूमि प्रतिलेखन यदि विचारभूमावेकाकिनं प्रस्थापयति तदा तस्य प्रायश्चित्तं जे भिक्खू साणुप्पए उच्चार-पासवणभूमिं ण चत्वारो गरुका:... त्रिविधं' सचित्तमचित्तं मिश्रंच स्थण्डिलं पडिलेहेति"""आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं ।। परिहारविषयेण नवकभेदेन 'त्रिभिः' मनोवाक्कायैर्विशुद्धं साणुप्पओ णाम चउभागावसेसचरिमाए। परिहरति स भवति विचारकल्पिकः। (बृभा ४१६ वृ)
(नि ४/१०८, ११८ चू,
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