Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 639
________________ समिति ५९२ आगम विषय कोश-२ विउंजंति, जाणओ वा अजाणओ वा फरुसं वयंति, सव्वमेयं सावजं वज्जेज्जा विवेगमायाए॥ .."जा य भासा सच्चा, जा य भासा मोसा, जा य भासा सच्चामोसा, जा य भासा असच्चामोसा, तहप्पगारं भासं . सावजं सकिरियं कक्कसं कडुयं निट्ठरं फरुसं अण्हयकरिं छेयणकरिं भेयणकरिं परितावणकरिं उद्दवणकरिं भूतोव- घाइयं अभिकंख णो भासेज्जा॥ (आचूला ४/१, १०) वह भिक्षु अथवा भिक्षुणी इन वचन-आचारों को सुनकर, अवधारण कर इन पूर्व मुनियों द्वारा अनाचीर्ण अनाचरणीय वचनों ने-जो क्राध, मान, माया आर लाभ स वचन का दुष्प्रयाग करते हैं, जानबूझकर या अनजान में परुष बोलते हैं, इस सर्व सावध भाषा का विवेकपर्वक वर्जन करे। जो सत्यभाषा. मषाभाषा. मिश्रभाषा और असत्यामषा (व्यवहार) भाषा. इस प्रकार की भाषा यदि सावध, कर्मबंधकारिणी.. कर्कश, कटुक, निष्ठुर, परुष, आस्नवकारिणी, छेदनकारिणी, भेदनकारिणी, परितापकारिणी, प्राण-वियोजनकारिणी और प्राणियों का उपघात करने वाली हो तो मुनि विचारविमर्शपूर्वक सत्य और व्यवहार भाषा भी न बोले। ० सत्य महाव्रत : भाषासमिति की सूक्ष्मता अस्संजतमतरते, वट्टइ ते पुच्छ होज्ज भासाए। वट्टति असंजमो से, मा अणुमति केरिसं तम्हा॥ ""एवं वत्तव्वं-केरिसं? इह वयणे अत्थावत्तिपओगेण वि सुहुमो वि अणुमतिदोसो ण लब्भति। (निभा १०१ चू) कोई साधु किसी ग्लान गृहस्थ को पूछे-तुम ठीक हो?- जो भिक्षु भदंत (आचार्य आदि) को आगाढ-परुषवचन कहता है, कहते हुए दूसरे का अनुमोदन करता है, वह चातुर्मासिक गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है। गाढुत्तं गृहणकरं, गाहेतुम्हं व तेण आगाढं। णेहरहितं तु फरुसं....॥ (निभा २६०८) कठोर वचन के दो प्रकार हैं१. आगाढ वचन-दूसरों को न कहने योग्य गुप्त बात कहना अथवा शरीर में उष्मा पैदा करने वाला वचन बोलना। २. परुष वचन-स्नेहहीन वचन बोलना। . आगाढवचन : असूचा-सूचा आगाढं पि य दुविहं, होइ असूयाइ तह य सूयाए।" जाति-कुल-रूव-भासा, धण बल परियाग जस तवे लाभे। सत्त-वय-बुद्धि-धारण, उग्गह सीले समायारी॥ अम्हे मो जातिहीणा, जातीमंतेहि को विरोहो णे। एस असूया सूया, तु णवरि परवत्थु-णिद्देसो॥ ....."आतगता तु असूया, सूया पुण पागडं भणति॥ (निभा २६०७, २६०९, २६१०, २६१६) आगाढ वचन के दो प्रकार हैं- १. असूचा-अपने दोष बताने के बहाने दूसरों के दोष प्रकट करना। यथा-हम तो जातिहीन हैं, जातिमान् लोगों से हमारा क्या विरोध? २. सूचा-स्पष्ट रूप से दूसरों के दोषों को सूचित करना। जाति, कुल, रूप, भाषा, धन, बल, पर्याय, यश, तप, लाभ, सत्त्व, वय, बुद्धि, धारणा (दृढ़स्मृति), अवग्रह (बहबहुविध आदि), शील और सामाचारी-इन सतरह स्थानों से सूचा-असूचा वचनों की अभिव्यक्ति होती है। ० वस्तुसापेक्ष मृदु-अमृदु वचन, षड्विध अवचन वत्थु वियाणिऊणं, एवं खिंसे उवालभेज्जा वा। खिंसा तु णिप्पिवासा, सपिवासो हो उवालंभो॥ खिंसा खलु ओमम्मी, खरसझे वा विसीयमाणम्मि। रायणिय-उवालंभो, पुव्वगुरु महिड्डि माणी य॥ (निभा २६३७, २६३८) वस्तु (व्यक्ति) को जानकर खिंसा और उपालम्भ देना अनुमोदन का दोष लगता है। इससे बचने के लिए इस प्रकार पूछना चाहिए-कैसे है ? (क्या स्थिति है ?)-इसमें अर्थापत्तिप्रयोग होने पर भी सूक्ष्म अनुमति दोष भी नहीं है। • आगाढ-परुष-वचन-निषेध जे भिक्खू भदंतं आगाढं फरुसं वदति, वदंतं वा सातिजति॥.."तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घातियं॥ (नि १०/३, ४१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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