Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 637
________________ समवसरण १. समवसरण - रचना : कब ? कैसे ? जत्थ अपुव्वोसरणं, जत्थ व देवो महिड्डिओ एइ । वाउदय पुप्फ वद्दल, पागारतियं च अभिओगा ॥ साहारण ओसरणे, एवं जत्थिड्डिमं तु ओसरई । एक्को च्चिय तं सव्वं, करेइ भयणा उ इयरेसिं ॥ (बृभा ११७७, ११८१) जिस क्षेत्र में समवसरण की रचना पहले कभी नहीं हुई अथवा पहले हो चुकी है, फिर भी यदि महर्द्धिक देव वन्दना के लिए आते हैं तो वहां नियमतः समवसरण की रचना होती है । शक्रेन्द्र आदि के आभियोगिक देव अपने स्वामी का आदेश पाकर वहां योजन परिमण्डल भूमि में संवर्त्तक वायु की विकुर्वणा करते हैं। उससे रेणु, तृण आदि सारा कचवर बाहर फेंक दिया जाता है। फिर भावी रेणु और संताप की उपशांति के लिए वे उदकबादल की विकुर्वणा कर सुगंधित जल की तथा पुष्पबादल की विकुर्वणा र जानुपर्यंत अधोन्यस्त वृत्त वाले अचित्त पुष्पों की वृष्टि करते हैं, फिर वे तीन प्राकारों की रचना करते हैं। अनेक देवेन्द्र वन्दना करने आते हैं, उस समय तो समवसरण की रचना होती ही है। यदि कोई इन्द्र, सामानिक आदि ऋद्धिमान् देव आता है, तब वह अकेला ही समवसरण की रचना करवाता है । यदि इन्द्र, सामनिक आदि महर्द्धिक देव नहीं आते हैं, भवनवासी आदि देव आते हैं, तब समवसरण की रचना वैकल्पिक है। • समवसरण : देवकृत अभितर- मज्झ - बहिं, विमाण- जोड़-भवणाहिवकयाओ। पायारा तिन्नि भवे, रयणे कणगे य रयए य ॥ ........जं चऽन्नं करणिज्जं करिंति तं वाणमंतरिया ॥ (बृभा ११७८, ११८० ) वैमानिक देव भीतरी रत्नमय परकोटे की रचना करते हैं । ज्योतिष्क देव मध्य में स्वर्णमय और भवनपति देव बाहरी रजतमय परकोटे की रचना करते हैं। शेष करणीय व्यन्तर देव करते हैं । * प्राकार - रचना, द्वादशविध परिषद् द्र श्रीआको १ समवसरण २. समवसरण : लोकत्रयी का आगमन यो लोकाः समाहृताः, समवसरणे त्रयाणामपि सम्भ Jain Education International आगम विषय कोश - २ वात् । तथाहि - समागच्छन्ति भगवतां तीर्थकृतां समवसरणेष्वधोलोकवासिनो भवनपतयः, तिर्यग्लोकवासिनो वानमन्तरतिर्यक्पञ्चेन्द्रिय- ( मनुष्य - ) ज्योतिष्काः, ऊर्ध्वलोकवासिनः कल्पोपपन्नका देवाः । (बृभा १ की वृ) ५९० भगवान् तीर्थंकर के समवसरण में अधोलोकवासी भवनपति देव, तिर्यग्लोकवासी व्यन्तरदेव, तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय प्राणी, मनुष्य और ज्योतिष्क देव तथा ऊर्ध्वलोकवासी कल्पोपपन्न देव उपस्थित होते हैं। इस प्रकार समवसरण में तीनों लोक समाहृत होते हैं। ३. समवसरण : तीर्थंकर का प्रवेश सूरुदय पच्छिमाए, ओगाहिंतीऍ पुव्वओ एति । दोहिँ पउमेहिँ पाया, मग्गेण य होंति सत्तऽन्ने ॥ (बृभा ११८२) तीर्थंकर समवसरण में प्रथम पौरुषी में अथवा पश्चिम पौरुषी में पूर्व दिशा के द्वार से प्रवेश करते हैं। वे प्रवेश करते समय देवविकुर्वित सहस्रपत्र पद्मयुग्म पर पादन्यास करते हैं । उनके पीछे सात अन्य कमल होते हैं । जो-जो पश्चाद्वर्ती कमल होता है, वह वह चरणन्यास करते हुए भगवान के आगे आ जाता है। ४. समवसरण की मर्यादा - व्यवस्था इंतं महिड्डियं पणिवयंति ठियमवि वयंति पणमंता । न वि जंतणा न विकहा, न परोप्परमच्छरो न भयं ॥ (बृभा ११८९) अर्हत्-समवसरण पहले से ही यदि अल्प ऋद्धि वाले व्यक्ति स्थित हैं तो वे आने वाले महान् ऋद्धि वालों को नमस्कार करते हैं। यदि महर्द्धिक पहले से स्थित हैं तो बाद में प्रवेश करने वाले अल्पर्द्धिक उन्हें प्रणाम करते हुए यथास्थान जाते हैं। समवसरण में न यंत्रणा ( रोक-टोक ) होती है, न विकथावार्ता, न परस्पर प्रद्वेष होता है और न भय। (तत्रस्थ व्यक्तियों के मानस तीर्थंकर के साम्यसुधासिंधु प्रवाह से प्लवित हो जाते हैं, उनके वैर-विरोध की विषैली ऊर्मियां विलीन हो जाती हैं ।) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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