Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 636
________________ आगम विषय कोश-२ ५८९ समवसरण ३. मित्र के समान-जिन श्रमणोपासकों में सापेक्ष प्रीति होती है णाम इति छट्ठी मूल-कम्मपगडी। तस्स बायालीऔर कारणवश प्रीति का नाश होने पर वे आपत्काल में भी उपेक्षा सुत्तरभेदेसु अट्ठमो संघयणभेओ णाम। तस्स पुक्खलुदया करते हैं, उनकी तुलना मित्र से की गई है। इस कोटि के श्रमणोपासक पुक्खल-सरीरसंघयणं भवति। (निभा ८५ की चू) अनुकूलता में वत्सलता रखते हैं और कुछ प्रतिकूलता होने पर __ आठ मूल कर्मप्रकृतियों में छठी प्रकृति है नाम कर्म, जिसके श्रमणों की उपेक्षा करने लग जाते हैं। बयालीस उत्तर भेदों में आठवां भेद है-संहनन नाम कर्म। इस ४. सौत के समान-कुछ श्रमणोपासक ईर्ष्यावश श्रमणों में दोष ही प्रकृति का शुभ रूप में उदय होने पर श्रेष्ठ शरीर संहनन होता है। देखते हैं, किसी भी रूप में उपकारी नहीं होते, उनकी तुलना सपत्नी (सौत) से की गई है। * छह संहनन : परिणाम और कर्मबंध द्र कर्म आन्तरिक योग्यता और अयोग्यता के आधार पर श्रमणो * छह संहननों का स्वरूप द्र श्रीआको १ संहनन पासक के चार वर्ग किए गए हैं (० संहनन का अर्थ है-अस्थि-संरचना। किन्तु यह विमर्शनीय १. आदर्श के समान-दर्पण सामने उपस्थित वस्तु का यथार्थ है। एकेन्द्रिय जीवों के अस्थिरचना नहीं होती, फिर भी श्वेताम्बर प्रतिबिम्ब ग्रहण कर लेता है। इसी प्रकार कुछ श्रमणोपासक श्रमण परम्परा में उनके 'शेवात' तथा दिगम्बर परम्परा में 'असम्प्राप्त के तत्त्व-निरूपण को यथार्थ रूप में ग्रहण कर लेते हैं। सृपाटिका' संहनन माना गया है। इस आधार पर संहनन की २. पताका के समान-ध्वजा अनवस्थित होती है। वह जिधर की व्याख्या अस्थिरचना से हटकर करने की अपेक्षा है। एकेन्द्रिय के हवा होती है. उधर ही मड जाती है। इसी प्रकार कछ श्रमणोपासकों सन्दर्भ को ध्यान में रखकर इसकी व्याख्या यह की जा सकती का तत्त्वबोध अनवस्थित होता है। है-औदारिक शरीवर्गणा के पुद्गलों से होने वाली शरीर-संरचना ३. स्थाण के समान-स्थाण शष्क होने के कारण प्राणहीन हो का नाम है संहनन । वैक्रिय शरीर में अस्थि, शिरा और स्नाय नहीं जाता है। उसका लचीलापन चला जाता है। फिर वह झक नहीं होते, इसलिए उसे संहनन शून्य कहा गया है। नैरयिकों के छह पाता। इसी प्रकार कुछ श्रमणोपासकों में अनाग्रह का रस सूख जाता। संहननों में से कोई संहनन नहीं होता।-भ१/२२४ भाष्य है। ....फिर वे किसी नये सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते। ० नारक और देव असंहननी होते हैं। पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, ४. तीखे कांटों के समान-कपडे में कांटा लग गया। कोई सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच और सम्मूछिम मनुष्य-इनके सेवात आदमी उसे निकालता है। कांटे की पकड इतनी मजबत है कि संहनन होता है । गर्भज तिर्यंच और गर्भज मनुष्यों के छहों संहनन वह न केवल उस वस्त्र को ही फाड डालता है. अपित निकालने होते हैं।-समप्र १८६-१९५ वाले के हाथ को भी बींध डालता है। कुछ श्रमणोपासक * प्रथम संहनन विच्छेद द्र अनशन कदाग्रह से ग्रस्त होते हैं। उनका कदाग्रह छडाने के लिए श्रमण * जिनकल्प और पारांचित में संहनन द्र सम्बद्ध नाम उन्हें तत्त्वबोध देते हैं। वे न केवल उस तत्त्वबोध को अस्वीकार देते हैं। वे न केवल उस तत्त्वबोध को अस्वीकार * जिन-स्थविरकल्प : धृति-संहनन द्र स्थविरकल्प करते हैं, किन्तु तत्त्वबोध देने वाले श्रमण को दुर्वचनों से बींध सचित्त-सजीव। द्र जीवनिकाय डालते हैं।-स्था ४/४३०, ४३१ टि) समवसरण-तीर्थंकरों का प्रवचनस्थल। * श्रावक के बारह व्रत...... द्र श्रीआको १ श्रावक १. समवसरण-रचना : कब? कैसे? संलेखना-अनशन से पूर्व क्रमिक तप के द्वारा शरीर और ० समवसरण : देवकृत । कषाय का कृशीकरण। द्र अनशन २. समवसरण : लोकत्रयी का आगमन ३. समवसरण : तीर्थंकर का प्रवेश संहनन-अस्थि-संरचना। औदारिकशरीर वर्गणा के पुद्गलों ४. समवसरण की मर्यादा-व्यवस्था से होने वाली शरीर-संरचना। __ * प्रथम-द्वितीय समवसरण द्र पर्युषणाकल्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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