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आगम विषय कोश-२
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संघ
फल है? आचार्य ने कहा-राज्य आदि की प्राप्ति। फिर उपयोग-- जैसे चिकित्सा के क्षेत्र में आरोग्य का प्रसंग प्रथम है, वैसे उपयुक्त होकर कहा-तुम पूर्वभव में मेरे शिष्य थे। तब से राजा ही मुमुक्षु के लिए कर्मक्षयकारी अनुष्ठान प्रथम है। संघकार्य को सम्प्रति की जिनप्रवचन में श्रद्धा उत्पन्न हो गई। वह श्रावक बन पहले करना चाहिए अन्यथा संघअवात्सल्य, अपभ्राजना और गया और श्रमणसंघ की प्रभावना करने लगा। (द्र आर्यक्षेत्र) तीर्थहानिजन्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। कार्य की शानता . विलंब कापायचिन्न
संघकार्य की घोषणा को सुनकर प्राघूर्णक मुनि धूलिजंघ चोएति कहं तुब्भे, परिहारतवं गतं पवण्णं तु। अवस्था में भी (पैरों की धूलि झाड़े बिना ही) त्वरता से निक्खिविउं पेसेहा, चोदग! सुण कारणमिणं तु॥ (कार्यस्थल पर पहुंच जाए। शक्ति होने पर भी जो कुलतिक्खेस तिक्खकज्ज, सहमाणेस य कमेण कायव्वं। गण-संघ-समवाय में उपस्थित नहीं होता है, वह चतुर्गुरु प्रायश्चित्त न य नाम न कायव्वं, कायव्वं वा उवादाए॥ का भागी होता है। वणकिरियाए जा होति, वावडा जर-धणुग्गहादीया। १४. गण-अपक्रमण के आठ कारण काउमुवद्दवकिरियं, समेंति तो तं वणं वेज्जा॥
___....."अट्ठहा पुण, णियमा हि इमं अवक्कमणं । जह आरोग्गे पगतं, एमेव इमं पि कम्मखवणेणं।
अब्भुज्जत ओहाणे, एक्केक्क-दुभेद होज्जऽवक्कमणं। इहरा उ अवच्छल्लं, ओभावण तित्थहाणी य॥
__णाणादिकारणं वा, वुग्गहो वा...॥ घुट्ठम्मि संघकज्जे, धूलीजंघो वि जो न एज्जाही।
अब्भुज्जयं दुविधं-अब्भुज्जतमरणेण अब्भुज्जयकुल-गण-संघसमाए, लग्गति गुरुगे चउम्मासे ॥ विहारेण वा । ओहाणं दुविधं-विहारोधावणेण लिंगोधावणेण
(व्यभा ६९८-७०१, १६५५) वा, ""दंसणचरित्तट्ठा य"। (निभा ५५९४, ५५९५ चू) शिष्य ने प्रश्न किया-आर्यप्रवर ! दुष्कर परिहारतप वहन
आठ कारणों से गण से अपक्रमण किया जाता हैकरने वाले को बीच में ही तप स्थगित कर अन्यत्र भेजते हैं। ऐसा
१. अभ्युद्यतमरण
५. ज्ञान क्यों ? गुरु ने कहा-शिष्य ! तुम इसका कारण सुनो।
२. अभ्युद्यतविहार ६. दर्शन तीक्ष्ण (बड़े और शीघ्र करने योग्य) और तीक्ष्णतर कार्यों
३. विहार अवधावन ७. चारित्र के उत्पन्न होने पर जो तीक्ष्णतर (गुरुतर अतिपाति) कार्य है, उसे
४. लिंग अवधावन ८. कलह पहले करना चाहिये। कहा भी है
(इनमें तीसरा, चौथा और आठवां-ये अप्रशस्त कारण हैं, 'यगपत्समपेताना, कार्याणां यदतिपाति तत्कार्यम। अतिपातिष्वपि फलं, फलदेष्वपि धर्मसंयुक्तम्॥'
शेष प्रशस्त कारण हैं । स्थानांग (७/१) के अनुसार सात कारणों से सहमान कार्यों को क्रमश: करना चाहिये। तीक्ष्णतर कार्य
गण से अपक्रमण (दूसरे गण की उपसंपदा को स्वीकार) किया के पश्चात् सहमान (अनतिपाति) कार्य नहीं करना चाहिए
जा सकता हैऐसा नहीं है। यदि दो अतिपाति कार्य एक साथ समुत्पन्न हों तो गुरु
० सब धर्मों (श्रत-चारित्र के प्रकारों) की प्राप्ति हेत। लघु का विमर्श कर जो कार्य प्रवचन या संघ का उपकारी है. उसे ० कुछेक धर्मों की विशिष्ट प्राप्ति हेत। सर्वप्रथम करना चाहिए।
० सर्वधर्मों के प्रति जो संशय है, उसे दूर करने के लिए। व्रण की चिकित्सा प्रारंभ की हुई है, बीच में ही ज्वर या
० देशविचिकित्सा दूर करने के लिए। धनुग्रहवात जैसी घातक व्याधि उत्पन्न हो जाये तो कुशल वैद्य ० सब धमों को दूसरों को देने के लिए। पहले उस भयंकर व्याधि की चिकित्सा करते हैं, तत्पश्चात् उस ० कुछेक धर्मों को दूसरों को देने के लिए। व्रण का शमन करते हैं।
० एकलविहारप्रतिमा प्रतिपत्ति के लिए।)
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