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आगम विषय कोश-२
५८५
संघ
० गुफासिंह और महिलाद्वय दृष्टांत
णाणस्स होइ भागी, थिरयरतो दंसणे चरित्ते य। सीहं पालेइ गुहा, अविहाडं तेण सा महिड्डीया। धण्णा आवकहाए, गुरुकुलवासं न मुंचंति॥ तस्स पुण जोव्वणम्मि, पओअणं किं गिरिगुहाए।
(निभा ५४५४-५४५७) आणा-इस्सरियसुहं, एगा अणुभवइ जइ वि बहुतत्ती।
भीतावास, धर्मानुराग, अनायतनवर्जन और कषायनिग्रहदेहस्स य संठप्पं, भोगसुहं चेव कालम्मि॥
यह अर्हत् का शासन (अनुशिष्टि) है। गुरुकुलवास में रहने से परवावारविमुक्का, सरीरसक्कारतप्परा निच्चं।
मुनि के मुख्यतः चार गुण निष्पन्न होते हैंमंडणए वक्खित्ता, भत्तं पि न चेयई अपया॥
० भीतावास-वह आचार्य आदि के भय अथवा प्रायश्चित्त के वेयावच्चे चोयण-वारण-वावारणासु य बहूसु।
भय से अकरणीय कार्य नहीं करता है। एमादीवक्खेवा, सययं झाणं न गच्छम्मि॥
० धर्मरति-वैयावृत्त्य, स्वाध्याय आदि धर्मों में अनुरक्त तथा सूत्र(बृभा २११४, २११६-२११८)
अर्थ के अध्ययन में सतत उपयुक्त रहता है। गुफासिंह-दृष्टांत-गुफा सिंहशिशु की व्याघ्र आदि वन्य-पशुओं ० अनायतनवर्जन-कुशीलसंसर्ग का वर्जन करता है। से सुरक्षा करती है इसलिए गुफा महर्द्धिक है। सिंह यौवन प्राप्त ० कषायनिग्रह-कषाय की उदीरणा होने पर आचार्य या अन्य होने पर स्वयं अपनी रक्षा करने में समर्थ हो जाता है, तब उसे गुफा साधुओं के प्रशिक्षण द्वारा उसका शमन किया जाता है। से क्या प्रयोजन?
गुरुकुलवास में रहने वाला ज्ञान का भागी होता है। दर्शन महिलाद्वय-दृष्टांत-सप्रसवा महिला यद्यपि अपने पुत्र के स्नान और चारित्र में वह और अधिक स्थिर बनता है। वे धन्य हैं, जो आदि अनेक कार्यों में व्याप्त रहती है, फिर भी आज्ञा और ऐश्वर्य आजीवन गुरुकुलवास को नहीं छोड़ते। के सुख का अनुभव करती है तथा समय पर देह को सज्जित कर
__ जइमं साहुसंसग्गि, न विमोक्खसि मोक्खसि । भोगसुख को भी प्राप्त करती है। अप्रसवा स्त्री अपत्य आदि की
उज्जतो व तवे निच्चं, न होहिसि न होहिसि॥ चिंता से मुक्त होती है इसलिए वह सदा शरीर संस्कार में तत्पर
सच्छंदवत्तिया जेहिं, सग्गुणेहिं जढा जढा। रहती है. शरीर को विभषित करने में इतनी व्यस्त रहती है कि
अप्पणो ते परेसिं च, निच्चं सुविहिया हिया॥ उसे भोजन की भी स्मृति नहीं रहती।
जेसिं चाऽयं गणे वासो, सज्जणाणुमओ मओ। स्थविरकल्पिक मुनि सप्रसवा स्त्री की तरह वैयावृत्त्य,
दुहाऽवाऽऽराहियं तेहिं, निव्विकप्पसुहं सुहं ॥ प्रेरणा, वारणा, वस्त्र-पात्र-उत्पादन आदि अनेक कार्यों में व्याप्त
नवधम्मस्स हि पाएण, धम्मे न रमती मती। रहता है इसलिए निरन्तर आत्मध्यान में लीन नहीं रह सकता।
वहए सो वि संजुत्तो, गोरिवाविधुरं धुरं ॥ जिनकल्पिक मुनि अप्रसवा स्त्री की तरह वैयावृत्त्य आदि व्याक्षेपों
एगागिस्स हि चित्ताई, विचित्ताई खणे खणे। से मुक्त होता है, इसलिए आत्ममण्डन रूप शुभ ध्यान में निरन्तर
उप्पजंति वियंते य, वसेवं सज्जणे जणे॥ लगा रहता है।
(बृभा ५७१५-५७१९) १०. गुरुकुलवास में गुणवृद्धि
भीतावासो रती धम्मे अणायतणवज्जणं। गुरु कहते हैं- 'यदि तुम साधुसंसर्ग का परित्याग नहीं णिग्गहो य कसायाणं, एयं धीराण सासणं॥ करोगे तो मोक्ष-सुख को प्राप्त करोगे। तप आदि में सतत उद्यमशील आयरियादीण भया, पच्छित्तभया ण सेवति अकजं। नहीं बनोगे तो अव्याबाध सुख को प्राप्त नहीं करोगे।' वेयावच्चऽज्झयणेसु सज्जते तवयोगेणं॥ जो ज्ञान आदि सद्गुणों से रहित स्वच्छन्दता का परिहार ......"कोहादी व उदिण्णे, परिणिव्वावेति से अण्णे॥ करते हैं, वे सुविहित मुनि स्व-पर का हित साधते हैं।
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