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श्रमण
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आगम विषय कोश-२
तथागत (अनित्यभावनाभावित और गृहत्यागी), अनंत कोई कहता है-जब तक मृगों को न देखू, तब तक चारित्रपर्यवों से सम्पन्न, संयत, असाधारण विज्ञ (आगमनिपुण) अहिंसक हूं, स्त्री न मिले तब तक ब्रह्मचारी हूं। कोई कहता हैऔर शुद्ध आहार की एषणा में निरत भिक्षु को अनार्य मनुष्य आहार न मिले तब तक पौषधिक (उपवास-पौषधव्रती) हूं। असभ्य वचनों से वैसे ही व्यथित करते हैं, लोष्ट-प्रहार आदि से मद्य-मांस न मिले तब तक अमद्यमांसभोजी हं। किसी के घर छिद्र अभिद्रुत करते हैं, जैसे संग्राम में हाथी को बाणों से बींधा जाता है, न देख लं, तब तक अचौर्यव्रतधारी हूं-जो ऐसा कहते हैं, वे भिक्षु अभिद्रुत किया जाता है।
की अभिधा से अभिहित नहीं हो सकते। ___ उस प्रकार के अनार्य मनुष्यों द्वारा तिरस्कृत होने पर, उनके जो वस्तु का लाभ होने पर भी अग्राह्य-अनेषणीय का द्वारा कठोर शब्दों और प्रतिकूल स्पर्शों (कष्टों) की उदीरणा किए परित्याग करते हैं, वे ही अहिंसक भिक्षु कहला सकते हैं। जाने पर ज्ञानी (मुनि) अकलुषित चित्त से उन्हें सहन करे और वेषधारी भिक्षु यद्यपि भिक्षाजीवी हैं किन्तु वे साधु की तीव्र वायु से अप्रकंपित पर्वत की भांति अविचलित रहे। भांति एषणाशुद्ध भिक्षा ग्रहण नहीं करते।
मध्यस्थ भावना-भावित मुनि कुशल (गीतार्थ) मुनियों के यथाकाल (दिन में) प्रासक-एषणीय, परिमित (इकतीस साथ रहे। किसी भी त्रस और स्थावर प्राणी को दुःख प्रिय नहीं है, कवल प्रमाण). परीक्षित. यथालब्ध (संयोजना आदि दोषों से यह सोचकर वह सभी प्राणियों के प्रति अहिंसक रहे। जो पृथ्वी की रहित) और विशुद्ध (परिभोगकाल में आहार की प्रशंसा आदि भांति सर्वंसह होता है, वह समाहित महामुनि सुश्रमण कहलाता है। दोषों से रहित) आहार करना-यह भिक्षु की वृत्ति है। विज्ञ मुनि (क्षांति आदि) अनुत्तर धर्मपदों के प्रति समर्पित * द्रव्यभिक्षु-भावभिक्षु
द्र श्रीआको १ भिक्षु होता है। उस वितृष्ण, ध्यानलीन, समाहित (भावक्रियाप्रवण) ३. श्लथ श्रमण के प्रकार : पार्श्वस्थ आदि और अग्निशिखा की भांति तेज से दीप्त मनि के तप, प्रज्ञा और पासत्थ अहाछंदो, कुसील ओसन्नमेव संसत्तो।..." यश बढ़ता है।
गच्छम्मि केइ पुरिसा, सउणी जह पंजरंतरनिरुद्धा। ....जे इमे भवंति समणा भगवंतो सीलमंता वयमंता सारण-पंजर-चइया, पासत्थगतादि विहरंति॥ गणमंता संजया संवडा बंभचारी उवरया मेहणाओ धम्माओ,
(व्यभा ८३४, ८३५) णो खलु एएसिं कप्पइ आहाकम्मिए असणे वा पाणे वा"
शिथिलाचारी और स्वच्छंदविहारी श्रमणों के पांच प्रकार भोत्तए वा, पायत्तए वा।' (आचूला १/१२१) हैं-पार्श्वस्थ, यथाच्छंद, कुशील, अवसन्न और संसक्त। ____ जो ये श्रमण भगवान शीलसम्पन्न, व्रतसम्पन्न, गुणसम्पन्न, जैसे पिंजरे में निरुद्ध शकुनिका कष्ट का अनुभव करती है, संयत, संवृत, ब्रह्मचारी और मैथुन धर्म से उपरत होते हैं, ये वैसे ही कुछ मुनि गच्छ में रहते हुए स्मारणा-वारणा द्वारा महान् आधाकर्मिक अशन-पान खा-पी नहीं सकते।।
कष्ट का अनुभव करते हैं, तब वे उस गच्छ को छोड़कर पार्श्वस्थ २. भिक्षु कौन?
आदि के रूप में विहार करते हैं। अविहिंस बंभचारी, पोसहिय अमज्जमंसियाऽचोरा। . पार्श्वस्थ के प्रकार सति लंभ परिच्चाई. होति तदक्खा न सेसा उ॥ दविहो खल पासस्थो. देसे सब्वे य होति नायव्यो। अधवा एसणासुद्धं, जधा गिण्हंति साधुणो। सव्वे तिन्नि विकप्या, देसे सेज्जातरकुलादी॥ भिक्खं नेव कुलिंगत्था, भिक्खजीवी वि ते जदि॥ दंसण-नाण-चरित्ते, तवे य अत्ताहितो पवयणे य। अचित्ता एसणिज्जा, य मिता काले परिक्खिता। तेसिं पासविहारी, पासत्थं तं वियाणाहि॥ जहालद्धा विसुद्धा, य एसा वित्ती य भिक्खुणो॥ दंसण-नाण-चरित्ते, सत्थो अच्छति तहिं न उज्जमति।
(व्यभा १९०, १९१, १९३) एतेण उ पासत्थो, एसो अन्नो वि पज्जाओ॥
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