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श्रुतज्ञान
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आगम विषय कोश-:
(आगम आदि) का लोप मानते हैं, उनके समक्ष उनके प्रत्यय के शस्य को असंयम के पंक में मर्दित कर देता है। लिए तित्थोगाली का क्रमशः कथन करना चाहिए।
शिष्य कहता है-भंते! रोग से पीड़ित व्यक्ति वैद्य को ही ९. सूत्रग्रहण-प्रतिबोध : गज-श्लीपदी दृष्टांत ..
उसका उपचार पूछता है किन्तु वह स्वयं वैद्य-संहिता (आयुर्वेद) पव्वइओऽहं समणो, निक्खित्तपरिग्गहो निरारंभो। कोई
ना को नहीं पढ़ता। आप भी कर्मरूप रोग के ज्ञाता हैं। मैं आपको इति दिक्खियमेकमणो, धम्मधुराए दढो होमि॥
पूछकर सब कार्य संपादित कर लूंगा। गुरु कहते हैं-यद्यपि रोगी समितीसु भावणासु य, गुत्ती-पडिलेह-विणयमाईसु।
चिकित्सक को पूछे बिना स्वयं कोई उपचार नहीं करता, किन्तु
यदि उसका उपचारक्रिया के परिज्ञान में अधिकार है, तो वैद्य से लोगविरुद्धेसु य बहुविहेसु लोगुत्तरेसुं च॥
बार-बार पूछना नहीं पड़ता। उसी प्रकार तुम भी सूत्र पढ़कर तत्त्व जुत्त विरयस्स सययं, संजमजोगेसु उज्जयमइस्स। किं मझं पढिएणं, भण्णइ सुण ता इमे नाए॥
को जानो और वैसा करो, जिससे पुन:-पुनः पूछना न पड़े। जह ण्हाउत्तिण्ण गओ, बहुअतरं रेणुयं छुभइ अंगे। * श्रुत-श्रवण-ग्रहणविधि
द्र श्रीआको १ शिक्षा सुट्ट वि उज्जममाणो, तह अण्णाणी मलं चिणइ॥ १०. बारह वर्ष सूत्रग्रहण, बारह वर्ष अर्थग्रहण जं सिलिपई निदायति, तं लाएति चलणेहिं भूमीए। ...... सुत्तग्गहणं ताहे, करेइ सो बारस समाओ॥ एवमसंजमपंके, चरणसई लाइ अमुणितो॥ ....."बारस चेव समाओ, अत्थं.....॥ भणइ जहा रोगत्तो, पुच्छति वेज्जं न संघियं पढइ।
(बृभा १२१८, १२२०) इय कम्मामयवेज्जे, पुच्छिय तज्झे करिस्सामि॥
शिष्य गुरु के पास बारह वर्ष पर्यंत सूत्रों का अध्ययन करता भण्णइ न सो सयं चिय, करेति किरियं अपुच्छिउँ रोगी। नायव्वे अहिगारो, तुमं पि नाउं तहा कुणसु॥
है। तत्पश्चात् वह बारह वर्ष उनका अर्थ ग्रहण करता है।
..... अत्थग्गहणमराला, तेहिं चिय पन्नविजंति॥ (बृभा ११४४-११५०)
भो भद्राः! निर्दोष-सारवद्-विश्वतोमुखादयः सूत्रस्य (यदि कोई मुनि प्रव्रजित होकर आसेवन शिक्षा का अभ्यास
गुणा भवन्ति, ते च यथाविधि गुरुमुखादर्थे श्रूयमाण एव कर लेता है किन्तु ग्रहण शिक्षा की आराधना नहीं करता और
प्रकटीभवन्ति। किञ्च यथा द्वासप्ततिकलापण्डितो मनुष्यः कहता है-) 'मैं प्रव्रजित हूं, श्रमण हूं, आरंभ और परिग्रह से
प्रसुप्तः सन्न किञ्चिद् तासां कलानां जानीते एवं सूत्रमुक्त हूं। मैं एकाग्रमन होकर धर्मधुरा-धर्मचिन्ता (धर्मध्यान) में
मप्यर्थेनाऽबोधितं सुप्तमिव द्रष्टव्यम्। विचित्रार्थनिबद्धानि निष्कम्प हूं। समिति, गुप्ति, भावना, प्रत्युपेक्षण, विनय-वैयावृत्त्य
सोपस्काराणि च सूत्राणि भवन्ति, अतो गुरुसम्प्रदायादेव आदि में प्रयत्नवान् हूं। मैं लोकविरुद्ध तथा बहुविध लोकोत्तरविरुद्ध
यथावदवसीयन्ते न यतस्ततः। इत्थं युक्तियुक्तैर्वचोभिः कार्यों से निवृत्त हूं, संयमयोगों में सतत उद्यमशील हूं तो फिर मुझे
प्रज्ञापितास्ते विनेयाः प्रतिपद्यन्ते गुरूणामुपदेशम्, गृह्णन्ति पठन-पाठन (ग्रहण शिक्षा) की आवश्यकता ही क्या है?' तब
द्वादश वर्षाणि विधिवदर्थम्। (बृभा १२२२ वृ) गुरु ने कहा-सुनो ये दो दृष्टांत१. गजस्नान-जिस प्रकार हाथी नदी में स्नान कर बाहर आकर
जो अर्थग्रहण में आलसी हैं, उन्हें गुरु प्रज्ञप्ति देते हैं-भद्र अपनी ही सूंड से बहुत सी धूलि उठाकर अपने शरीर पर डाल शिष्यो! निर्दोष, सारयुक्त, विश्वतोमुख आदि जो सूत्र के गुण हैं, लेता है, उसी प्रकार अत्यधिक उद्यमशील होने पर भी अज्ञानी वे गुरुमुख से यथाविधि अर्थ सुनने पर ही प्रकट होते हैं। बहत्तर जीव कर्मरजों का संचय कर लेता है।
कलाओं में प्रवीण पुरुष भी सुप्तावस्था में उनको किंचित् भी नहीं २. श्लीपदी-श्लीपद (फीलपांव) रोग से ग्रस्त व्यक्ति धान्य जानता, इसी प्रकार अर्थबोध के बिना सूत्र सुप्त की तरह ही है। का निदाण करता है तो धान के दाने उसके भारी पैरों से कुचले . सूत्रों में विभिन्न अर्थ निबद्ध होते हैं। सूत्र परिकर्म सहित जाकर पृथ्वी के लग जाते हैं। इसी प्रकार अज्ञानी मुनि चारित्ररूपी होते हैं (द्र श्रीआको १ दृष्टिवाद)।अत: उनका अवबोध गुरुपरम्परा
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