________________
संघ
संजम-तव-नियमेसुं, जो जोग्गो तत्थ तं पवत्तेंति । असहू य नियत्तेंती, गणतत्तिल्ला पवत्तीओ ॥ (व्यभा ९५८, ९५९ )
जो तप, नियम (अभिग्रह) और विनय रूप गुणनिधियों के प्रवर्तक, ज्ञान-दर्शन- चारित्र में सतत उपयोगवान् तथा शिष्यों के संग्रहण-उपग्रहण में कुशल होते हैं, वे प्रवर्तक हैं। वे, जो शिष्य तप, संयम, नियम आदि योगों में से जिस योग के योग्य है, उसका उसमें प्रवर्तन तथा असमर्थ का निवर्तन करते हैं। इस प्रकार प्रवर्तक गणचिन्ता में प्रवृत्त होते हैं ।
० स्थविर
संविग्गो मद्दवितो, पियधम्मो नाण-दंसण-चरित्ते । जे अट्ठे परिहायति, ते सारेंतो हवइ थेरो ॥ थिरकरणा पुण थेरो, पवत्ति वावारितेसु अत्थेसु । जो जत्थ सीदति जती, संतबलो तं पचोदेति ॥ (व्यभा ९६०, ९६१ )
स्थविर मुमुक्षु, मृदु और प्रियधर्मा होता है। जो साधु ज्ञान-दर्शन- चारित्र संबंधी किसी अनुष्ठान को छोड़ देता है या प्रवर्तक जिस कार्य में उसे नियुक्त करता है, शक्ति होते हुए भी वह उसे करता हुआ अवसन्न होता है तो उस साधु को स्थविर स्मारणा-प्रेरणा- प्रशिक्षण द्वारा संयमयोगों में स्थिर करता है, इसलिए वह स्थविर कहलाता है।
० गीतार्थ ( गणावच्छेदक )
उद्भावणा पधावण, खेत्तोवधिमग्गणासु अविसादी । सुत्तत्थतदुभयविऊ, गीयत्था एरिसा होंति ॥ एवंविधा गीतार्था गणावच्छेदिनः । (व्यभा ९६२ वृ)
जो उद्धावन - प्रधावन - तत्पर है- कोई संघीय कार्य उत्पन्न होने पर 'यह कार्य मैं करूंगा' - इस प्रकार आचार्य को निवेदन कर आत्मानुग्रहबुद्धि से जो उस कार्य को शीघ्रता से सम्पादित करता है, क्षेत्रप्रत्युपेक्षा, उपधि-उत्पादन आदि कार्यों में जो विषण्ण नहीं होता तथा सूत्र - अर्थ-तदुभय का ज्ञाता होता है, ऐसा गीतार्थ मुनि गणावच्छेदक होता है ।
Jain Education International
५८२
४. आचार्य आदि सात पद
..... आयरिए वा उवज्झाए वा पवत्ती वा थेरे वा गणी वा गणहरे वा गणावच्छेइए वा । ......
आगम विषय कोश - २
आचार्य अनुयोगधरः । उपाध्यायः अध्यापकः । प्रवर्त्ती यथायोगं वैयावृत्त्यादौ साधूनां प्रवर्त्तकः । संयमादौ सीदतां साधूनां स्थिरीकरणात्स्थविरः । गच्छाधिपो गणी । यस्त्वाचार्यदेशीयो गुर्वादेशात् साधुगणं गृहीत्वा पृथग् विहरति स गणधरः । गणावच्छेदकस्तु गच्छकार्यचिन्तकः ।
(आचूला १/१३० वृ)
(क ३/१३ की वृ)
गणधरः संयतीपरिवर्तकः । ज्ञानादीनामविराधनां कुर्वन् यो गच्छं परिवर्धयति स (व्यभा १३७५ की वृ)
गणधरः ।
संघ में सात पद होते हैं
१. आचार्य - अनुयोगधर - अर्थ की वाचना देने वाला। २. उपाध्याय - अध्यापक-सूत्रपाठ की वाचना देने वाला । ३. प्रवर्त्ती - वैयावृत्त्य आदि में साधुओं का प्रवर्तक ।
४. स्थविर - संयम में अस्थिर होने वालों को स्थिर करने वाला। ५. गणी - गच्छाधिपति ।
६. गणधर - जो आचार्य के समान है, आचार्य के आदेश से साधुसंघ को लेकर पृथक् विहरण करता है, साध्वियों की देखभाल करता है तथा ज्ञान आदि की विराधना न करते हुए गण का परिवर्धन करता है, वह गणधर कहलाता है ।
७. गणावच्छेदक- गच्छ के कार्य का चिन्तन ( उपधि आदि की व्यवस्था) करने वाला।
० प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी
य
मिधोकहा झड्डर - विड्डरेहिं, कंदप्पकिड्डा बकुसत्तणेहिं । पुव्वावरत्तेसु य निच्चकालं, संगिण्हते णं गणिणी सधीणा ॥ गुरु-गणि-गणिणी अज्जं पि ॥ झड्ढरविड्डर नाम तेषु गृहस्थप्रयोजनेषु कुण्टलविण्टलादिषु वा प्रवर्तनं बकुशत्वं शरीरोपकरणविभूषाकरणं एताभ्यां च
तत्प्रवर्तिनीसंग्रहोऽपि साध्व्याः
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org