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आगम विषय कोश-२
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संघ
जो शिष्य उल्लिखित तप, ज्ञान आदि स्थानों में प्रमाद उपाध्याय को अभिषेक कहा जाता है। अभिषेक नियमतः करते हैं, उन्हें आचार्य प्रेरित करते हैं। जहां आचार्य उदासीन श्रृतनिष्पन्न होता है, अन्यथा उसमें आचार्यपद पर प्रतिष्ठित होने होते हैं-शिष्यों के प्रमादस्थानों की उपेक्षा करते हैं, तीर्थंकर उस की योग्यता ही नहीं होती।(द्र अभिषेक) संघ की प्रशंसा नहीं करते।
......यः पुनरित्वराभिषेकेणाचार्यपदेऽभिषिक्तः स ३. संघ के पांच आधार
इहाभिषेकः अथवा गणावच्छेदक इहाभिषेकः। तत्थ न कप्पति वासो, गुणागरा जत्थ नत्थि पंच इमे।
(बृभा १०७० की वृ) आयरिय-उवज्झाए, पवत्ति-थेरे य गीतत्थे ।। ___ अभिषेक के दो अर्थ और हैं-१.इत्वरिक अभिषेक से
(व्यभा ९५३) आचार्यपद पर अभिषिक्त । २. गणावच्छेदक। संघ के पांच आधारस्तंभ हैं-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, सत्तत्थतदभयविऊ. उज्जत्ता नाण-दंसण-चरित्ते। स्थविर और गीतार्थ (गणावच्छेदी)। ये गुणों के निधान होते हैं। निप्फादग सिस्साणं, एरिसया होंतुवज्झाया॥ जिस संघ में ये पांचों न हों, वहां मुमुक्षु न रहे।
सुत्तत्थेसु थिरत्तं, रिणमोक्खो आयतीयऽपडिबंधो। ० आचार्य : अर्हत् की अनुकृति, अर्थवाचक
पाडिच्छा मोहजओ, तम्हा वाए उवज्झाओ॥ सुत्तत्थतदुभएहिं, उवउत्ता नाण-दसण-चरित्ते।
(व्यभा ९५६, ९५७) गणतत्तिविप्पमुक्का, एरिसया होंति आयरिया॥ जो सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ के ज्ञाता हैं, ज्ञान-दर्शन-चारित्र में एगग्गया य झाणे, वुड्डी तित्थगरअणुकिती गुरुया। उद्यत हैं, शिष्यों के निष्पादक हैं, ऐसे होते हैं उपाध्याय। वे सूत्र आणाथेज्जमिति गुरू, कयरिणमोक्खो न वाएति॥ की वाचना देते हुए स्वयं अर्थ का भी अनुचिन्तन करते हैं, इससे
__ (व्यभा ९५४, ९५५) उनकी सूत्र और अर्थ में स्थिरता बढ़ जाती है। ___ जो सूत्र-अर्थ-तभय के ज्ञाता हैं, ज्ञान-दर्शन-चारित्र में ० वे गण के सूत्रात्मक ऋण से मुक्त हो जाते हैं। सतत उपयुक्त हैं, गणचिन्ता से मुक्त हैं, ऐसे होते हैं आचार्य। ० अनागत काल में आचार्य पद से अप्रतिबंधित होने से सूत्र का
केवल व्याख्या के लिए ही उनकी अर्थचिन्तनात्मक ध्यान ही अनुवर्तन कर उसमें अत्यन्त अभ्यस्त हो जाते हैं। में एकाग्रता होती है। एकाग्रता के कारण सक्ष्म अर्थों का उन्मेष ० प्रतीच्छक (अन्य गण से समागत-उपसम्पन्न) साधु उनकी होता है, इससे उनके सूत्रार्थ की वृद्धि होती है।
सूत्र- वाचना से अनुगृहीत होते हैं। ___ अर्थवाचना देते हुए गणचिन्ता से मुक्त आचार्य तीर्थंकरों की
० उपाध्याय मोहजयी होते हैं-सूत्रवाचना में संलग्न रहने से अनुकृति होते हैं। अर्थवाचक आचार्य की लोक में महती गुरुता।
उनके विस्रोतसिका का अभाव होता है। इन गुणों से सम्पन्न होने प्रकट होती है, इससे संघ की प्रभावना और आज्ञा में स्थैर्य- के कारण वे सूत्रवाचना के लिए अधिकृत हैं। अर्हत्-आज्ञा की अनुपालना होती है। सामान्य साधु अवस्था में वे उपाध्यायो वृषभानुग इति कृत्वा वृषभ उच्यते। साधुओं को सूत्र पढ़ा चुके होते हैं, इससे वे सूत्रात्मक ऋण से मुक्त
(बृभा १०७० की वृ) हो जाते हैं, अत: आचार्य सूत्रवाचना नहीं देते।
उपाध्याय वृषभानुग (वृषभ के समान शक्तिसंपन्न) होने ० उपाध्याय (अभिषेक ): सूत्रवाचक, वृषभ
के कारण वृषभ कहलाते हैं। (द्र स्थविरकल्प) 'अभिषेकः' उपाध्यायः। (बृभा ६११० की वृ) . प्रवर्तक : गणचिन्तक
."अभिषेकस्तु नियमाद् निष्पन्नो भवति, अन्यथा तत्त्वत तव-नियम-विणयगुणनिहि, पवत्तगा नाण-दसण-चरित्ते।। आचार्यपदस्थापनायोग्यत्वानुपपत्तेः। (बृभा ४३३८ की वृ) संगहुवग्गहकुसला, पवत्ति एतारिसा होंति॥
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