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आगम विषय कोश- २
सुवति सुवंतस्स सुतं संकित खलियं भवे पमत्तस्स । जागरमाणस्स सुतं, थिर-परिचितमप्यमत्तस्स ॥ नालस्सेण समं सुक्खं, न विज्जा सह निद्दया । न वेरग्गं ममत्तेणं, नारंभेण दयालुया ॥ जागरिया धम्मीणं, आहम्मीणं च सुत्तया सेया । वच्छाहियभगिणीए, अकहिंसु जिणे जयंतीए ॥ सुवइ य अयगर भूओ, सुयं च से नासई अमयभूयं । होहिड़ गोणब्भूओ, नद्रुम्मि सुए अमयभूए ॥ (बृभा ३३८२-३३८७ )
मनुष्यो ! सदा जागृत रहो। जो जागता है, (सूत्र - अर्थ की अनुप्रेक्षा आदि से) उसकी बुद्धि बढ़ती है। जो सोता है, वह धन्य नहीं होता। जो जागता है, वह सदा धन्य है ।
सोने वाले पुरुषों के लोक में सारभूत अर्थों की हानि होती है । अत: तुम जागृत रहते हुए बद्ध कर्मों को प्रकम्पित करो ।
सोने वाले का श्रुत सो जाता है (विस्मृत हो जाता है)। प्रमत्त मुनि-' इस स्थान पर यह आलापक पद है या वह ? यह अर्थपद हैं या अन्य' – इस प्रकार पग-पग पर संदिग्ध और परावर्तन काल में स्खलित हो जाता है जो जागृत रहता है, अप्रमत्त है, उसके श्रुत स्थिर तथा परिचित हो जाता है।
आलस्य के साथ सुख, नींद के साथ विद्या, ममत्व के साथ वैराग्य और हिंसा के साथ दया नहीं रह सकती ।
वत्सा जनपद कौशांबी नगरी शतानीक राजा की बहिन जयंती ने श्रमण महावीर से पूछा- भंते! जीवों का जागना अच्छा है या सोना ? श्रमण महावीर ने कहा - धार्मिकों की जागरिका श्रेयस्करी है और अधार्मिकों की सुप्तता श्रेयस्करी है । (सुत्तत्तं भंते! साहू ? जागरियत्तं साहू ?... ॥ जयंती ! जीवा अहम्मिया एएसि णं जीवाणं सुत्तत्तं साहू । जे ..एएसि णं जीवाणं जागरियत्तं साहू । - भ १२ / ५३, ५४ )
जे इमे
धम्मिया
जो अजगर के तुल्य होता है, वह निश्चित होकर सोता है। उसका अमृततुल्य श्रुत नष्ट हो जाता है। अमृतसदृश श्रुत के नष्ट होने पर वह बैलसदृश हो जायेगा ।
संग्राम
महाशिलाकंटक आदि संग्राम |
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द्र युद्ध
संघ-समान लक्ष्य तथा समान सामाचारी वाले श्रमणश्रमणियों का संगठन ।
१. संघ क्या है ?
२. श्रेष्ठ संघ के मानक 3. संघ के पांच आधार
o आचार्य अर्हत् की अनुकृति, अर्थवाचक ० उपाध्याय (अभिषेक): सूत्रवाचक, वृषभ
*
वृषभ की चिकित्साकालावधि
० प्रवर्त्तक गणचिन्तक
:
० स्थविर
० गीतार्थ ( गणावच्छेदक ) * गणावच्छेदक क्षेत्रप्रतिलेखनार्ह ४. आचार्य आदि सात पद
० प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी * अभिषेका
o आचार्य आदि के अभाव में उत्पन्न दोष * आचार्य, उपाध्याय गणावच्छेदक
का न्यूनतम दीक्षा पर्याय और श्रुत गण अमान्य आचार्य स्थापन से प्रायश्चित्त * गणधारण में निशीथ की भूमिका ५. गणिविहीन गण नहीं
६. निरहंकारी गण में मान्य व्यवहारी
* सारणा वारणा का मूल्य
८. गच्छ का परिमाण
* पंचविध गच्छवासी आचार्य आदि * गणपालन दुष्कर
९. कौन महर्द्धिक - गच्छ या जिनकल्प ? गुफासिंह और महिलाद्वय दृष्टांत
१०. गुरुकुलवास में गुणवृद्धि | ११. संघ में संयम सुरक्षा के स्थान
* चारित्र से तीर्थ की अवस्थिति १२. संघ प्रभावक राजा सम्प्रति
०
संघ
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द्रवैयावृत्त्य
द्र क्षेत्रप्रतिलेखना
* अनुपशांत की गच्छ में रहने की अवधि द्र अधिकरण ७. सारणा - वारणाशून्य गच्छ गच्छ नहीं
* सारणा की अनिवार्यता
द्र स्थविरकल्प
द्र आचार्य
द्र आचार्य
द्र छेदसूत्र
द्र उपसम्पदा द्र आचार्य
द्र स्थविरकल्प
द्र जिनकल्प
द्र चारित्र |
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