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श्रुतज्ञान
• श्रुतज्ञान तृतीयनेत्र
मा एवमसग्गाहं, गिण्हसु गिण्हसु सुयं तइयचक्खु ।' सूक्ष्म-व्यवहितादिष्वतीन्द्रियार्थेषु तृतीयचक्षुः(बृभा ११५४ वृ)
कल्पं श्रुतम् ।
गुरु ने कहा- शिष्य ! तुम श्रुत के अग्रहण का दुराग्रह मत करो। श्रुत सूक्ष्म, व्यवहित आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के ज्ञान के लिए तृतीय चक्षु के समान है। तुम उसका अनुशीलन करो।
१६. श्रुतग्रहण हेतु वृद्धवास की अनुज्ञा
....... आयपरे निप्पत्ती, कुणमाणो वावि अच्छेज्जा । संवच्छरं च झरए, बारसवासाइ कालियसुतम्मि ।'' ....सोलस उ दिट्ठिवाए, गहणं झरणं दसदुवे य ॥ जे गेण्हिउं धारइउं च जोग्गा, थेराण ते देंति सहायए तु ।
हंति ते ठाणठितासुणं, किच्चं च थेराण करेंति सव्वं ॥ सूत्रार्थतदुभयेन निष्पत्तिं कुर्वन् वा वृद्धवासेन तिष्ठेत् ।" 'झरति' परावर्तयति । ग्रहणं झरणं बाधिकृत्य तावन्तं कालमेकत्रावतिष्ठते । (व्यभा २२९१ - २२९३, २२९७ वृ)
कालिकश्रुत ग्रहण में बारह वर्ष तथा दृष्टिवादग्रहण में सोलह वर्ष लगते हैं। इन दोनों के परावर्तन में क्रमशः एक वर्ष और बारह वर्ष लगते हैं । मुनि सूत्रार्थ में स्व- परनिष्पन्नता हेतु कालिक श्रुत के लिए तेरह वर्ष और दृष्टिवाद के लिए अट्ठाईस वर्ष पर्यंत वृद्धवास में रह सकते हैं।
जो 'सूत्र - -अर्थ के ग्रहण और धारण के योग्य होते हैं, उन्हें स्थविरों के पास सहायक के रूप में रखा जाता है, जिससे एक स्थान पर रहकर वे सुखपूर्वक श्रुतग्रहण करते हैं और स्थविरों के सारे कार्य सम्पादित करते हैं।
१७. श्रुत-स्वाध्याय की निष्पत्ति
आयहिय परिण्णा भावसंवरो नवनवो अ संवेगो । निक्कंपया तवो निज्जरा य परदेसियत्तं च ॥ ....... नाणी चरित्तगुत्तो, भावेण उ संवरो होइ ॥ जह जह सुयमोगाइ, अइसयरसपसरसंजुयमपुव्वं । तह तह पल्हाइ मुणी, नवनवसंवेगसद्धाओ ॥ .... विहरइ विसुज्झमाणो, जावज्जीवं पि निक्कंपो॥
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आगम विषय कोश-:
बारसविहम्मि वि तवे, सब्भितरबाहिरे कुसलदिट्ठे । न वि अत्थि न वि अ होही, सज्झायसमं तवोकम्मं ॥ जं अन्नाणी कम्मं, खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिँ गुत्तो, खवेइ ऊसासमेत्तेण ॥ आय-परसमुत्तारो, आणा वच्छल्ल दीवणा भत्ती । होति परदेसियत्ते, अव्वोच्छित्ती य तित्थस्स ॥ (बृभा १९६२, ११६६ -- ११७१)
१.
श्रुत के अध्ययन से आठ गुण निष्पन्न होते हैंआत्महित - आत्महित का सम्यक् ज्ञान होता है। २. परिज्ञा - ज्ञपरिज्ञा - प्रत्याख्यानपरिज्ञा का विकास होता है। ३. भावसंवर - ज्ञानी चारित्रगुप्त होता है - यही भावसंवर है। ४. नव नव संवेग - मुनि जैसे-जैसे अतिशायी अर्थपदों के रसास्वाद से 'युक्त अपूर्व श्रुत का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे वह अपूर्वअपूर्व संवेग श्रद्धा- वैराग्यमयी घनीभूत मोक्षाभिलाषा से अपूर्व आनंद का अनुभव करता है ।
५. निष्कम्पता - वह कर्ममल से विशुद्ध होता हुआ जीवनपर्यंत संयम में स्थिर चित्तवृत्ति से विहरण करता है।
६. तप - यह भावना पुष्ट होती है कि अर्हत् द्वारा उपदिष्ट द्वादशविध बाह्य और आभ्यंतर तप में स्वाध्याय के तुल्य कोई तपः कर्म न है, न था और न होगा।
७. निर्जरा - अज्ञानी जीव अनेकों कोटि वर्षों में जितने कर्मों का क्षय करता है, उतने कर्मों का क्षय त्रिगुप्त ज्ञानी उच्छ्वास मात्र में कर लेता है।
८. परदेशकत्व - श्रुत का पारगामी मुनि दूसरों को श्रुत पढ़ाता हुआ स्वयं के ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करता है और उनको अज्ञानतमसागर से पार उतारता है। इससे तीर्थंकर की आज्ञा की आराधना, शिष्यों के प्रति उसके वात्सल्य का प्रकटीकरण, प्रवचन की प्रभावना और भक्ति तथा तीर्थ की अव्यवच्छित्ति होती है। १८. अप्रमाद से श्रुतज्ञान की वृद्धि
जागरह नरा ! णिच्चं, जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धी । जो सुति ण सोधणो, जो जग्गति सो सया धण्णो ॥ सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था । तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्मं ॥
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