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संघ
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आगम विषय कोश-२
* पारिहारिक द्वारा गच्छ की सेवा द्र परिहारतप * आचार्य आदि की सेवा से महानिर्जरा द्रवैयावृत्त्य * संघकार्य में मंत्रीपरिषद् का दायित्व द्र परिषद् १३. संघकार्य की प्रधानता : विलंब का प्रयश्चित्त १४. गण अपक्रमण के आठ कारण * गणान्तर उपसम्पदा क्यों?
द्र उपसम्पदा १. संघ क्या है?
संघो गुणसंघातो, संघायविमोयगो य कम्माणं। रागहोसविमुक्को, होति समो सव्वजीवाणं॥ परिणामियबुद्धीए, उववेतो होति समणसंघो उ। कज्जे निच्छयकारी, सुपरिच्छियकारगो संघो॥ आसासो वीसासो, सीतघरसमो य होति मा भाहि। अम्मापितीसमाणो, संघो सरणं तु सव्वेसिं॥ सीसे कुलव्विए व गणव्विय संघव्विए य समदरिसी। ववहारसंथवेसु य, सो सीतघरोवमो संघो॥ गिहिसंघातं जहितुं, संजमसंघातगं उवगए थे। णाण-चरण-संघातं, संघायंतो हवति संघो॥ नाण-चरणसंघातं, रागद्दोसेहि जो विसंघाए। सो संघाते अबुहो, गिहिसंघातम्मि अप्पाणं॥
(व्यभा १६७७, १६७८, १६८१, १६८६-१६८८) संघ गुणों का संघात है, कर्मसंघात का विमोचक है, रागद्वेष से मुक्त और सब जीवों के प्रति सम है। श्रमणसंघ पारिणामिकी बुद्धि से सम्पन्न होता है और विवादास्पद विषयों में श्रुतबल से सम्यक् निर्णय करता है। संघ सुपरीक्षितकारक होता है।
संघ आश्वास और विश्वास है। संघ शीतघर के समान है। माता-पिता के समान यह संघ सबके लिए शरण है। इसलिए तुम डरो मत। (संघ आश्वास-विश्वास है... अभयदाता है-इस रूप में शब्दावलि की एकरूपता की दृष्टि से मा भाहि (डरो मत) के स्थान पर माभाइ (अभयदान-देशीनाममाला ६/१२९) शब्द अधिक संगत प्रतीत होता है।)
कुल, गण और संघ के किन्हीं शिष्यों में परस्पर विवाद उत्पन्न होने पर या पूर्वसंस्तुत-पश्चातसंस्तुतों का किसी के साथ विवाद होने पर संघ समदर्शी (निष्पक्ष) होता है, इसलिए वह शीतघर की उपमा से उपमित है। जैसे शीतघर अपने आश्रित सब
व्यक्तियों के परिताप का हरण करता है, वैसे ही संघ न्यायार्थ समागत प्रत्येक व्यक्ति को न्याय प्रदान करता है।
गृहिसंघात (माता-पिता आदि) को छोड़कर संयम-संघात में उपस्थित साधक में जो ज्ञान-दर्शन-चरण का संघात (अवस्थिति) करता है, वह संघ है।
जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र के संघात को राग-द्वेष से विघटित करता है, अपने को गृहिसंघात (गृहस्थ-गार्हस्थ्य) से योजित करता है, वह अबोध संघ संघ नहीं है। २. श्रेष्ठ संघ के मानक
बारसविधे तवे तू, इंदिय-नोइंदिए य नियमे उ। संजमसत्तरसविधे, हाणी जहियं तहिं न वसे॥ तव-नियम -संजमाणं, एतेसिं चेव तिण्ह तिगवुड्डी। नाणादीण व तिण्हं, तिगसुद्धी उग्गमादीणं॥ पासत्थे ओसण्णे, कुसील-संसत्त तह अहाछंदे। एतेहि जो विरहितो, पंचविसुद्धो हवति सो उ॥ पंच य महव्वयाई, अहवा वी नाण-दंसण-चरित्तं। तव-विणओ वि य पंच उ, पंचविधुवसंपदा वावि॥ सोभणसिक्खसुसिक्खा, सा पुण आसेवणे य गहणे य। दुविधाए वि न हाणी, जत्थ य तहियं निवासो उ॥ एतेसुं ठाणेसुं, सीदंते चोदयंति आयरिया। हावेंति उदासीणा, न तं पसंसंति आयरिया।
(व्यभा १९२६-१९३१) जहां द्वादशविध तप, इन्द्रिय और मन का निग्रह तथा सतरह प्रकार के संयम की हानि हो, वहां मुनि न रहे।
मुनि वहां रहे, जहां तप, नियम और संयम-इस त्रिक की अथवा ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इस त्रिक की वृद्धि हो। जहां उद्गम, उत्पाद और एषणा-इस त्रिक की शुद्धि हो, वहां रहे।
जो संघ पंचविशुद्ध हो-पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथाच्छन्द-इस पंचक से रहित हो, वहां रहे।
जो पांच महाव्रतों से अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और विनय-इन पांचों से अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वैयावृत्त्यइस पंचविध उपसंपदा से युक्त हो, वहां रहे।
आसेवन शिक्षा और ग्रहण शिक्षा-इस द्विविध सुशिक्षा की जहां हानि न हो, वहां रहे।
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