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आगम विषय कोश-२
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श्रुतज्ञान
से ही हो सकता है, यत्र-तत्र नहीं। इस प्रकार युक्तियुक्त वचनों अध्ययन विहित है, उनको पढ़ लेने पर वह सर्वसूत्रकल्पिक बन से प्रज्ञापित शिष्य बारह वर्षों तक विधिवत् अर्थग्रहण करते हैं। जाता है। भाव से परिणत (परिणामी) शिष्य निशीथ तथा अन्यान्य
सुत्तम्मि य गहियम्मी, दिटुंतो गोण-सालिकरणेणं। अपवादबहुल अध्ययनों और अरुणोपपात आदि अतिशायी अध्ययनों उवभोगफला साली, सुत्तं पुण अत्थकरणफलं॥ का ज्ञाता हो जाता है।
(बृभा १२१९) शिष्य ने पूछा-प्रव्रज्या के तीन वर्ष पूरे नहीं हुए और मुनि
ने आचारांगपर्यंत पढ़ लिया, फिर वह क्या करे? आचार्य ने सूत्रग्रहण के पश्चात् अर्थग्रहण अवश्य हो । सूत्र का फल
कहा-वत्स! मुनि पढ़े हुए सूत्रों से और अधिक परिचित हो __ है अर्थ का ग्रहण। इस विषय में दो दृष्टांत हैं
जाए। अथवा उनका अर्थ ग्रहण करे। अथवा प्रकीर्णकसत्रों के सूत्रों १. बलिवर्द-बैल सरस-नीरस चारि को बिना स्वाद लिए ही खा
को तथा अर्थ को धारण करे। इस प्रकार अंगों तथा अतिशायी लेता है। वह तृप्त होने के बाद बैठकर उसकी जुगाली करता हुआ
अध्ययनों का जब तक कल्पिक होता है, तब तक यह क्रम है। इस स्वाद का अनुभव करता है, उसमें जो कचवर होता है, उसका
संदर्भ में जाहक-दृष्टांत है। (द्र श्रीआको १ परिषद्) परित्याग कर सार को ग्रहण कर लेता है। इसी प्रकार मुनि गुरु के
अर्थकल्पिक-आवश्यक से लेकर सूत्रकृतांग तक के आगमों के पास सम्पूर्ण सूत्र को ग्रहण करता है, तत्पश्चात् अर्थ का ग्रहण
अर्थ का ज्ञाता। सूत्रकृतांग से आगे छेदसूत्रों को छोड़कर जितने करता है। बिना अर्थ के सूत्र स्वादरहित भोजन के तुल्य होता है।
सूत्रों का अध्ययन किया है, उतने सत्रों के समग्र अर्थ का २. शालिकरण-कृषक अत्यंत परिश्रम से शालि का उत्पादन
कल्पिक होता है । छेदसूत्रों को पढ़ लेने पर भी जब तक मुनि करता है। फिर वह उनका लवन, मलन आदि कर उन्हें उपभोग
भावतः परिणत नहीं हो जाता, तब तक वह उनके अर्थ का के योग्य बनाकर कोष्ठागार में डाल देता है। जब वह उनका
कल्पिक नहीं हो सकता। यथायोग्य उपभोग करता है, तब वह संग्रह सफल होता है। इसी
० तदुभयकल्पिक-जो सूत्र और अर्थ को युगपद् ग्रहण करने में प्रकार अर्थग्रहण से सूत्रग्रहण का श्रम सफल होता है।
समर्थ है । अथवा जिसके द्वारा सूत्र, अर्थ और तदुभय-इन तीनों ११. सूत्र-अर्थ-तदुभयकल्पिक : आर्यवज्र दृष्टांत
स्थानों में से एक से दूसरा स्थान अधिक गृहीत हो, वह मुनि। सुत्तस्स कम्पितो खलु, आवस्सगमादि जाव आयारो। जैसे-सूत्र से अर्थ की अधिकता, अर्थ से तभय की अधिकता। तेण पर तिवरिसादी, पकप्पमादी य भावेणं॥ तदुभयकल्पिक प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा और पापभीरु होता है। सुत्तं कुणति परिजितं, तदत्थगहणं पइण्णगाई वा। आर्यवज्र-दृष्टांत-आर्य वज्र ने बचपन में सूत्रश्रवण किया। दीक्षा इति अंगऽज्झयणेसुं, होति कमो जाहगो नायं ॥ के पश्चात् उन्हें उसी दिन उद्देश-समुद्देश-अनुज्ञा और दूसरे प्रहर अस्थस्स कप्पितो खलु, आवासगमादि जाव सूयगडं। में अर्थ की वाचना दी गई। मोत्तूणं छेयसुयं, जं जेणऽहियं तदट्ठस्स॥ तीन प्रकार के मुनियों को सूत्र और अर्थ की युगपत् वाचना दी जा तदुभयकप्पिय जुत्तो, तिगम्मि एगाहिएसु ठाणेसु। सकती है-१. जिसे पूर्वभव में पढ़े हुए श्रुत की स्मृति हो। पियधम्मऽवज्जभीरू, ओवम्मं अज्जवइरेहिं॥ २.बचपन में जिसने श्रुतश्रवण किया हो। ३. जिसकी मेधा/श्रुतधारण पुव्वभवे वि अहीयं, कण्णाहडगं व बालभावम्मि। की क्षमता उत्कृष्ट हो। उत्तममेहाविस्स व, दिज्जति सुत्तं पि अत्थो वि॥ * श्रतग्रहण की प्रक्रिया द्र श्रीआको १ बुद्धि
(बृभा ४०६-४१०)
१२. आगमवाचना में संयमपर्याय की कालमर्यादा सूत्रकल्पिक-आवश्यक से लेकर आचारांग पर्यंत सूत्रों का ज्ञाता।
तिवासपरियायस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ आयारइनके अध्ययन में प्रव्रज्या-वर्षों की कोई सीमा नहीं है। उसके बाद
पकप्पं नामं अज्झयणं उद्दिसित्तए॥ चउवासपरियायस्स" मुनिपर्याय के तीन वर्ष से बीस वर्ष पर्यंत जिन-जिन सूत्रों का
सयगडे नामं अंगे"॥पंचवासपरियायस्स"दसाकप्पववहारे"॥
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