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श्रुतज्ञान
आगम विषय कोश-२
मतिज्ञानं 'मतिविषयं' मत्यनुसारि, यस्य यादृशी मतिस्तस्य तदनुसारं मतिज्ञानं प्रवर्तते। .. मतिपूर्वं' मति- कारणकम्, श्रुतज्ञानं हि वाच्यवाचकभावेन शब्दप्लावितस्यार्थस्य ग्रहणम्, वाच्यवाचकभावेन च शब्दः प्रवर्त्तते मत्यवधारितेऽर्थे । "स्वमतिसमुत्थं प्रत्येकबुद्धानां पदानुसारिप्रज्ञानां वा, परोपदेशसमुत्थमस्मदादीनाम्। (बृभा ४१ वृ)
मतिज्ञान मतिविषयक-मत्यनुसारी है-जिसकी जैसी मति होती है, उस मति के अनुसार उसका मतिज्ञान प्रवर्तित होता है। श्रुत मतिपूर्वक होता है-मतिज्ञान श्रुतज्ञान का कारण है।वाच्यावाचक भाव से शब्दप्लावित अर्थ का ग्रहण श्रुतज्ञान है। वाच्य-वाचक संबंध से मति से अवधारित अर्थ में शब्द प्रवृत्त होता है। सम्पूर्ण मूल भेदों की अपेक्षा से श्रुतज्ञान दो प्रकार का है१. स्वमतिसमुत्थ-अपनी मति से उत्पन्न, जैसे—प्रत्येकबुद्धों अथवा पदानुसारी प्रज्ञा वालों का श्रुतज्ञान। २. परोपदेशसमुत्थ-गुरु आदि के उपदेश से प्राप्त श्रुतज्ञान, जैसेहमारा श्रुतज्ञान। ३. द्रव्यश्रुत-भावश्रुत दव्वसुयं पत्तग-पुत्थएसु जं पढइ वा अणुवउत्तो। आगम-नोआगमओ, भावसुयं होइ दुविहं तु॥ आगमओ सुयनाणी, सुओवउत्तो य होइ भावसुयं। सो सुयभावाऽणन्नो, सुयमवि उवओगओऽणनं॥ जं तं दुसत्तगविहं, तमेव नोआगमो सुर्य होइ। सामित्तासंबद्धं, समिईसहियस्स वा जं तु॥
(बृभा १७५-१७७) द्रव्यश्रुत-इसके दो रूप हैं-१. पत्र-पुस्तकों में न्यस्त अक्षर। २. उपयोगरहित अवस्था में पढना।
भावश्रुत-इसके दो प्रकार हैं१. आगमतः भाव श्रुत-श्रुतज्ञान में उपयुक्त श्रुतज्ञानी। श्रुतज्ञानी श्रतभाव से अनन्य है तथा श्रुत भी उपयोग से अनन्य है। २. नोआगमत: भाव श्रुत-श्रुत के चौदह भेद। वे भेद स्वामित्व से असंबद्ध, स्वतंत्र हैं। अथवा समिति सहित उपयोगवान् व्यक्ति का जो श्रुत है, वह भी नोआगमतः भावश्रुत है। * श्रुतज्ञान के चौदह भेद
द्र श्रीआको १ श्रुतज्ञान
४. अक्षरश्रुत का एक भेद : संज्ञाक्षर संठाणमगाराई, अप्याभिप्यायतो व जं जस्स।....
(बृभा ४४) अकार आदि अक्षरों के (लिपिभेद के कारण) विविध संस्थान-आकार (यथा-अर्धचन्द्राकृति टकार, घटाकृति ठकार) अथवा स्वाभिप्रायकृत चिह्नविशेष संज्ञाक्षर है। ५. अक्षर-उपलब्धि-अनुपलब्धि : संज्ञी-असंज्ञी अच्चंता सामन्ना, य विस्सुती होइ अणुवलद्धीओ। सारिक्ख विवक्खोभय, उवमाऽऽगमतो य उवलद्धी। अत्थस्स दरिसणम्मि वि, लद्धी एगंततो न संभवइ। दहूं पि न याणंते, बोहिय पंडा फणस सत्त। अत्थस्स उग्गहम्मि वि, लद्धी एगंततो न संभवति। सामन्ना बहुमझे, मासं पडियं जहा दटुं॥ अत्थस्स वि उवलंभे, अक्खरलद्धी न होइ सव्वस्स। पुव्वोवलद्धमत्थे, जस्स उ नामं न संभरति॥ सारिक्ख-विवक्खेहि य, लभति परोक्खे वि अक्खर कोइ। सबलेर-बाहुलेरा, जह अहि-नउला य अणुमाणे॥ एगत्थे उवलद्धे, कम्मि वि उभयत्थ पच्चओ होइ। अस्सतरि खर-ऽस्साणं, गुल-दहियाणं सिहरिणीए॥ पुव्वं पि अणुवलद्धो, धिप्पइ अत्थो उ कोइ ओवम्मा। जह गोरेवं गवयो, किंचिविसेसेण परिहीणो॥ अत्तागमप्पमाणेण अक्खरं किंचि अविसयत्थे वि। भवियाऽभविया कुरवो, नारग दियलोय मोक्खो य॥ ओसन्नेण असन्नीण अत्थलंभे वि अक्खरं नत्थि। अत्थो च्चिय सन्नीणं, तु अक्खरं निच्छए भयणा ॥
(बृभा ४६-५४) अक्षर-अनुपलब्धि के तीन प्रकार हैं१. अत्यन्त अनुपलब्धि-पदार्थ को देखने पर भी उसके वाचक अक्षरों की उपलब्धि एकान्ततः नहीं होती। जैसे-बोधिक (पश्चिमदिग्वासी म्लेच्छ) पनस को और पांडुमथुरावासी सत्तुओं
२. सामान्य से अनुपलब्धि-पदार्थ का अवग्रह हो जाने पर भी अन्य पदार्थ की सदृशता के कारण उसकी एकान्तत: उपलब्धि
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