Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 617
________________ श्रमण ५७० आगम विषय कोश-२ जो लौकिक विवादों में साक्षी होता है अथवा नाटक-नृत्य आवाह (वरपक्षसंबंधी भोज अथवा नवोढा का श्वसुरगृह में आदि का प्रेक्षण करता है, वह पासणिअ/प्रेक्षणिक है। प्रवेश),विवाह आदि का मुहूर्त बताता है, यह द्रव्य बेचो, यह (० पासणिअ-साक्षी-देशीनाममाला ६/४१ । खरीदो, इसमें लाभ होगा, इसमें हानि होगी-ऐसा सावध आदेश० प्रेक्षणिका-तमाशा देखने की शौकीन स्त्री।-आप्टे) निर्देश करता है, वह संप्रसारक है। लोइयववहारेसू, लोए सत्थादिएसु कज्जेसु। ५. नित्यक श्रमण पासणियत्तं कुणती, पासणिओ सो य णायव्वो॥ दव्वे खेत्ते काले, भावे णितियं चउव्विहं होति.... साधारणे विरेगं ............। चाउम्मासातीतं, वासाणुदुबद्ध मासतीतं वा। छंदणिरुत्तं सई, अत्थं वा लोइयाण सस्थाणं। वुड्डावासातीतं, वसमाणे कालतोऽणितिते॥ भावत्थए य साहति, छलियादी उत्तरे सउणे॥ ..."तं आलंबणरहितो, सेवंतो होति णितिओ उ॥ (निभा ४३५६-४३५८) (निभा १०१०, १०१६, ४३५२) जो लौकिक व्यवसाय और व्यवहार के संबंध में निर्णय जो द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव संबंधी सीमा का अतिक्रमण देता है, एक जैसी प्रतीत होने वाली वस्तुओं का विभाजन तथा दो कर शय्या आदि का नित्य परिभोग करता है. वह नित्यक है। प्रतियोगियों के विवाद का निपटारा करता है, छंद, निरुक्त, व्याकरण जो वर्षाकाल में चातुर्मासिक कल्प और ऋतुबद्धकाल में आदि लौकिक शास्त्रों के सूत्र, अर्थ और भावार्थ का प्रतिपादन मासकल्प की मर्यादा का अतिक्रमण कर निरंतर एक क्षेत्र में रहता करता है, अर्थशास्त्र, शृंगारकथा, शकुनशास्त्र आदि की व्याख्या है, वह काल नित्यक है। वृद्धवास, वृद्धसेवा आदि कारणों से एक करता है, वह प्राश्निक है। स्थान पर रहने वाला नित्यक नहीं कहलाता। निष्कारण नित्य एक (प्राश्निक-परीक्षक। निर्णायक। मध्यस्थ।-आप्टे) स्थान पर रहने वाले को नित्यक कहा जाता है। • मामक, संप्रसारक ६. लिंगधारक श्रेणिबाह्य : शर्कराघट दृष्टांत आहार उवहि देहे, वीयार विहार वसहि कल गामे। पडिसेहं च ममत्तं, जो कुणति मामतो सो उ॥ लिंगेण निग्गतो जो, पागडलिंग धरेइ जो समणो। .......", ममाई निक्कारणोवयति॥ किध होइ णिग्गतो त्ति य, दिर्सेतो सक्करकुडेहिं ॥ अस्संजयाण भिक्खू, कज्जे अस्संजमप्पवत्तेसु। दाउं हिट्ठा छारं, सव्वत्तो कंटियाहि वेढित्ता। जो देती सामत्थं, संपसारओ सो य णायव्वो॥ सकवाडमणाबाधे, पालेति तिसंझमिक्खंतो॥ गिहिणिक्खमणपवेसे, आवाह विवाह विक्कय कए वा। मुई अविद्दवंतीहिं कीडियाहिं स चालणी चेव। जज्जरितो कालेणं, पमायकुडए निवे दंडो॥ गुरुलाघवं कहेंते, गिहिणो खलु संपसारीओ॥ निवसरिसो आयरितो, लिंग मुद्दा उ सक्करा चरणं। (निभा ४३५९-४३६२) पुरिसा य होंति साहू, चरित्तदोसा मुयिंगाओ। ० मामक-जो आहार, उपधि, देह, विचारभूमि, विहारभूमि, शय्या, कुल, ग्राम-इन सब पर ममत्व करता है और दूसरों को इन (बृभा ४५१६-४५१९) सबके ग्रहण का निषेध करता है तथा स्थान आदि में आसक्त शिष्य ने पूछा-जो श्रमण मुनि-लिंग को छोड़ देता है, होकर उनकी निष्कारण प्रशंसा करता है, वह मामक/मामाक है। वह संयम श्रेणी से बाह्य है। परन्तु जो मुनि-लिंग को धारण ० संप्रसारक-जो गृहस्थों की असंयममय प्रवृत्तियों का पर्यालोचन किए हुए है, वह श्रेणी से बाह्य कैसे? करता है, उन्हें समर्थन देता है, उनको परामर्श देता है, यात्रा के आचार्य ने दृष्टांत देते हुए कहा-एक बार एक राजा ने लिए घर से निष्क्रमण और पुनः प्रवेश का मुहूर्त बताता है, शक्कर से भरे हुए दो घड़ों पर मुद्रा लगाकर उन्हें दो पुरुषों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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