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आगम विषय कोश-२
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श्रमण
आवस्सगं अणियतं, करेति हीणातिरित्तविवरीयं।..... पंचासवप्पवत्तो, जो खलु तिहि गारवेहि पडिबद्धो। जध उ बइल्लो बलवं, भंजति समिलं तु सो वि एमेव। इत्थि-गिहिसंकिलिट्ठो, संसत्तो सो य नायव्वो॥ गुरुवयणं अकरेंतो, वलाति कुणती च उस्सोढुं॥
(व्यभा ८८८-८९०) उउबद्धपीढफलगं, ओसन्नं संजयं वियाणाहि। जैसे अलिंदक में गोभक्त-कुक्कुस, ओदन, अवश्रावण ठवियग-रइयगभोई, एमेया • पडिवत्तीओ॥ आदि मिले हुए होते हैं, रंगभूमि में प्रविष्ट नट कथा के अनुसार
...."स्थापनादोषदुष्टप्राभृतिकाभोजी, रचितकं नाम बहुत से रूप बनाता है, लाक्षारस में निमग्न एडक लोहितवर्ण कांस्यपात्रादिषु पटादिषु वा यदशनादि देयबुद्ध्या वैविक्त्ये वाला और गुलिका कुण्ड में निमग्न एडक नीलवर्ण वाला हो जाता स्थापितम्।
(व्यभा ८८२-८८६७) है, वैसे ही संसक्त साधु जिसके साथ मिलता है, उसी के सदृश
हो जाता है। उसके दो प्रकार हैंअवसन्न के दो प्रकार हैं
१. असंक्लिष्ट-जो पार्श्वस्थ में मिलकर पार्श्वस्थ, यथाच्छंद में १. देश अवसन्न-जो आवश्यक आदि क्रियाओं में जागरूक नहीं
यथाच्छंद, कुशील में कुशील, अवसन्न में अवसन्न और संसक्त में होता, आवश्यक नियतकाल में नहीं करता अथवा हीन-अतिरिक्त
संसक्त हो जाता है. उनके सदश आचरण करता है तथा प्रियधर्मियों या विपरीत करता है तथा स्वाध्याय, प्रतिलेखना, ध्यान, भिक्षा और
में मिलकर प्रियधर्मी बन जाता है। मण्डलीभोजन यथाविधि-यथासमय नहीं करता, प्रत्याख्यान और २. संक्लिष्ट-जो हिंसा आदि पांच आश्रवों में प्रवत्त है. ऋद्धितपस्या नहीं करता। जो उपाश्रय से बाहर जाते समय आवस्सई रस-सात-गौरव, स्त्री और गही-इनमें प्रतिबद्ध है।
और लौटते समय निस्सही का उच्चारण नहीं करता, कायोत्सर्ग, ४.काथिक उपवेशन और शयन के समय प्रत्युपेक्षा-प्रमार्जना नहीं करता या
आहारादीणऽट्ठा, जसहेउं अहव पूयणनिमित्तं। सम्यक् रूप से नहीं करता।
तक्कम्मो जो धम्मं, कहेति सो काहिओ होति॥ जैसे बलवान् बैल को प्रेरित करने पर वह अपनी दुःशीलता कामं खलु धम्मकहा, सज्झायस्सेव पंचमं अंगं। के कारण समिला को तोड़ देता है। इसी प्रकार अवसन्न मुनि अव्वोच्छित्तीइ ततो, तित्थस्स पभावणा चेव॥ गुरुवचनों को संपादित नहीं करता, सहन नहीं करता, रुष्ट हो तह वि य ण सव्वकालं, धम्मकहा जीइ सव्वपरिहाणी। अवांछित अनर्गल बोलता है।
नाउं व खेत्तकालं, पुरिसं च पवेदते धमं॥ २. सर्वअवसन्न-जो हर पक्ष में पीठ-फलक आदि के बंधनों को
__ (निभा ४३५३-४३५५) खोलकर प्रतिलेखना नहीं करता अथवा जो संस्तारक को सदा
जो आहार, वस्त्र आदि की प्राप्ति, यश-प्राप्ति और वंदनाफैलाये-बिछाये रखता है, जो स्थापितभोजी और रचितभोजी है।
पूजा के निमित्त धर्मकथा करता है, सूत्र-अध्ययन आदि को छोड़कर ये सारी सर्वअवसन्नविषयक प्रतिपत्तियां हैं।
केवल उसी में लगा रहता है, वह काथिक/कथावाचक है। ० स्थापितभोजी-स्थापनादोषदूषित प्राभृतिकाभोजी।
यह सही है कि धर्मकथा स्वाध्याय का ही पांचवां भेद है। ० रचितभोजी-जो आहार देयबुद्धि से कांस्यपात्र, पट आदि में
उससे तीर्थ की अव्यवच्छित्ति और प्रभावना होती है। फिर भी हर पृथक् स्थापित होता है, उसे खाने वाला।
समय धर्मकथा नहीं करनी चाहिए क्योंकि जिससे वाचना, ० संसक्त का स्वरूप
प्रतिलेखना, वैयावृत्त्य आदि सब संयमयोगों की परिहानि होती है। गोभत्तालंदो विव, बहुरूवनडोव्व एलगो चेव। क्षेत्र, काल और पुरुष को जानकर यथोचित धर्मकथा करणीय है। संसत्तो सो दुविधो, असंकिलिट्ठो व इतरो य॥ ० पासणिअ/पश्यक/प्राश्निक पासत्थ-अधाछंदे, कुसील-ओसण्णमेव संसत्ते। जणवयववहारेसु णडणट्टादिसु वा जो पेक्खणं करेति पियधम्मो पियधम्मे, असंकिलिट्ठो उ संसत्तो॥ सो पासणिओ।
(नि १३/५८ की चू)
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