________________
आगम विषय कोश - २
पासो त्ति बंधणं ति य, एग बंधहेतवो पासा । पासत्थिय पासत्थो, अन्नो वि एस पज्जाओ ॥ सेज्जायकुलनिस्सित ठवणकुलपलोयणा अभिहडे य । पुवि पच्छासंथुत, णितियग्गपिंडभोड़ य पासत्थो ॥ (व्यभा ८५२ -८५६)
५६७
पार्श्वस्थ के दो प्रकार हैं- देशत: और सर्वतः । सर्वपार्श्वस्थ - इसके तीन प्रकार हैं
१. पार्श्वस्थ - जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और प्रवचन में सम्यग् नहीं है, जो ज्ञान आदि के पार्श्व - तट पर स्थित है। आयुक्त २. प्रास्वस्थ - जो ज्ञान आदि में अवस्थित है, अनुद्यमी है। ३. पाशस्थ - पाश और बंधन एकार्थक हैं। जो बंध के हेतुभूत प्रमाद आदि पाशों में स्थित है।
देशपार्श्वस्थ - जो शय्यातरपिंडभोजी है, (जिन्होंने उसके पास सम्यक्त्व ग्रहण किया है, उन) निश्रितकुलों से, स्थापनाकुलों अथवा लोक में गर्हित कुलों से जो भिक्षा प्राप्त करता है, जो जीमनवार की प्रतीक्षा करता रहता है, अभिहृत आहार ग्रहण करता है। जो पूर्व-पश्चात् - संस्तुत - माता-पिता, श्वसुर आदि का उपजीवी है या दान से पहले पीछे दाता की प्रशंसा करता है, जो नित्यपिंडभोजी और अग्रपिण्डभजी है ।
(पासत्थ का संस्कृत रूप केवल पार्श्वस्थ ही होना चाहिए। इसका मूलस्पर्शी अर्थ होना चाहिए - भगवान पार्श्व की परम्परा में स्थित | अर्हत् पार्श्व के अनेक शिष्य श्रमण महावीर के तीर्थ में प्रव्रजित हो गए। हमारा अनुमान है कि जो शिष्य श्रमण महावीर के शासन में सम्मिलित नहीं हुए, उन्हीं के लिए पार्श्वस्थ शब्द प्रयुक्त हुआ है। यह स्पष्ट है कि महावीर के आचार की अपेक्षा पार्श्व का आचार मृदु था। जब तक शत्तिशाली आचार्य थे, तब तक दोनों परम्पराओं में सामंजस्य बना रहा। शक्तिशाली आचार्य नहीं रहे, तब पार्श्वनाथ के शिष्यों के प्रति महावीर के शिष्यों में हीन भावना इतनी बढ़ी कि पार्श्वस्थ शब्द शिथिलाचारी के अर्थ में हो गया । - सू१ / २ / ३२ का टि) रूढ़
• यथाच्छंद का स्वरूप
उस्सुत्तमायरंतो, उस्सुत्तं चेव पण्णवेमाणो । एसो उ अधाछंदो, इच्छाछंदो त्ति एगट्ठा ॥ उस्सुत्तमणुवदिट्टं, सच्छंदविगप्पियं अणणुवादी ।.....
Jain Education International
जा
********** ||
सच्छंदमतिविगप्पिय, किंची सुहसायविगतिपडिबद्धो । तिहि गारवेहि मज्जति, तं जाणाहि य अधाछंदं ॥ अहछंदस्स परूवण, उस्सुत्ता दुविध होति नायव्वा । चर गतसुं सागारियादि पलियंक निसेज्जा सेवणा य गिहिमत्ते । निग्गंथिचिट्टणादि, पडिसेहो खेत्तं गतो उ अडविं, एक्को संचिक्खती तहिं चेव । तित्थकरोति य पियरो, खेत्तं पुण भावतो सिद्धी ॥ जिणवयणसव्वसारं, मूलं संसारदुक्खमोक्खस्स । मइलेत्ता, ते दुग्गतिवढगा होंति ॥
मासकप्पस्स ॥
सम्मत्तं
श्रमण
(व्यभा ८६०-८६३, ८६७, ८७१, ८७२)
जो स्वयं उत्सूत्र का आचरण करता है और दूसरों के समक्ष उत्सूत्र की ही प्ररूपणा करता है, वह यथाच्छंद या इच्छाछंद कहलाता है । जो तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट नहीं है, स्वेच्छाकल्पित है, सिद्धांत के साथ घटित नहीं है, वह उत्सूत्र है ।
जो स्वच्छंद मति से विकल्पित का प्रज्ञापन कर लोगों को आकृष्ट कर लेता है, जो सुखस्वादु, विकृति-रसों में प्रतिबद्ध तथा ऋद्धि, रस और साता गौरव से उन्मत्त होता है, वह यथाच्छंद है।
यथाच्छंद की उत्सूत्र प्ररूपणा के दो विषय हैं१. चरणसंबंधी - जैसे - शय्यातरपिंड, पर्यंक, गृहिनिषद्या और गृहिपात्र - इनके सेवन में कोई दोष नहीं है। साध्वी के उपाश्रय में अवस्थिति उचित है । मासकल्प से अधिक रहने में दोष नहीं है। २. गतिसंबंधी - तीन भाई हैं- एक खेती करता है, एक देशांतर में चला जाता है, एक घर पर ही रहता है। गृहपति पिता की मृत्यु होने पर सम्पत्ति का विभाग तीनों को मिलता है। इसी प्रकार आपके (सुविहित मुनियों के) और हमारे पिता तीर्थंकर हैं। आपको मुक्ति मिलेगी तो हमें भी मुक्ति मिल जायेगी, आपकी गति ही हमारी गति है । इस प्रकार प्ररूपणा करने वाले यथाच्छंदक सम्यक्त्व को मलिन कर अपनी दुर्गति बढ़ाने वाले होते हैं । सम्यक्त्व ही जिनवाणी का सार और दुःखमुक्ति का मूल है। ० पार्श्वस्थ और यथाच्छंद में अंतर
सक्कमहादीया पुण, पासत्थे ऊसवा मुणेयव्वा । अधछंद ऊसवो पुण, जीए परिसाय उ कधेति ॥ लहुगो धि लगा, जधि लहुगा चउगुरू तधिं ठाणे
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org