Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 615
________________ श्रमण ५६८ आगम विषय कोश-२ ... पासत्थे जं भणियं, अहछंद विवड्डियं जाणे॥ ० कुशील का स्वरूप प्रायश्चित्तं "कस्माद् विवर्धितं प्रतिषिद्धसेवनात् ..."दंसण-नाण-चरित्ते, तिविध कुसीलो मुणेयव्वो॥ कुप्ररूपणाया बहुदोषत्वाद।पार्श्वस्थत्वं त्रयाणामपि सम्भवति, नाणे नाणायारं, जो तु विराधेति कालमादीयं । तद्यथा-भिक्षोर्गणावच्छेदिन आचार्यस्य च। यथाच्छन्दत्वं दंसणे दंसणायारं, चरणकसीलो इमो होति॥ पुनर्भिक्षोरेव। (व्यभा ८७३-८७५ वृ) कोउगभूतीकम्मे, पसिणाऽपसिणे निमित्तमाजीवी। ० उत्सव-पार्श्वस्थ के मान्य उत्सव हैं-इन्द्रमह, स्कन्दमह, कक्क-कुरुया य लक्खण, उवजीवति मंत-विज्जादी॥ जाती कुले गणे या, कम्मे सिप्पे तवे सुते चेव। रुद्रमह आदि। यथाच्छंद का उत्सव है उसकी परिषद्, जिसके समक्ष वह स्वच्छंद विकल्पित कुमत की प्ररूपणा करता है। सत्तविधं आजीवं, उवजीवति जो कुसीलो सो॥ ० प्रायश्चित्त-पार्श्वस्थ को जिस अपराधपद में जितना प्रायश्चित्त (व्यभा ८७७-८८०) आता है, उसी अपराधपद में यथाच्छंद का प्रायश्चित्त वृद्धिंगत हो कुशील के तीन प्रकार हैं-१. ज्ञानकुशील-काल, विनय जाता है। यथा-पार्श्वस्थ को मासलघु तो यथाच्छंदक को चतुर्लघु ___ आदि आठ प्रकार के ज्ञानाचार की विराधना करने वाला। और पार्श्वस्थ को चतुर्लघु तो यथाच्छंद को चतर्गरु। २. दर्शनकुशील-दर्शनाचार का विराधक। यथाच्छंद की प्रायश्चित्तवृद्धि का हेतु है-आगमविरुद्ध ३. चरणकुशील-जो कौतुक (इन्द्रजाल आदि द्वारा आश्चर्य में आचरण और बहुदोषयुक्त कुमत की प्ररूपणा। डाल देना), भूतिकर्म, प्रश्नाप्रश्न, निमित्त, आजीव, कल्ककुरुका पार्श्वस्थता भिक्षु, गणावच्छेदी और आचार्य-इन तीनों के (माया अथवा प्रसूति रोग आदि में क्षारपातन), लक्षण, मंत्र, विद्या संभव है। यथाच्छंद केवल भिक्ष ही हो सकता है। आदि से जीवनयापन करता है, वह चरणकुशील है। ० पार्श्वस्थ आदि श्रमणों का आचार * कौतुक, भूतिकर्म आदि : आभियोगी भावना द्र भावना ओसन्न खुयायारो, सबलायारो य होति पासत्थो। ० आजीव-जो जाति (मातृकी), कुल (पैतृक), गण (मल्ल भिन्नायारकुसीलो, संसत्तो संकिलिट्ठो उ॥ गण आदि), कर्म (अनाचार्यक), शिल्प, तप और श्रुत-जीवनयापन (व्यभा १५२२) के लिए इन सातों का उपजीवी है, वह चरणकुशील है। १. अवसन्न-आवश्यक आदि में अनद्यमी क्षत (अपूर्ण) आचार ० अवसन्न श्रमण का स्वरूप एवं प्रकार वाला होता है। सामायारिं वितह, ओसण्णो जं च पावती तत्थ।.... २. पार्श्वस्थ-उद्गम आदि दोषयुक्त आहार आदि सेवन करने ...."जं वा मूलुत्तरगुणातियारं जत्थ किरियाविसेसे वाला शबलाचारी होता है। पयट्टो पावति तं अणिंदंतो अणालोयंतो पच्छित्तं अकरेंतो ३. कशील-जाति आदि से जीविका चलाने वाला भिन्नाचारी ओसण्णो भवति। (निभा ४३४९ चू) (खंडित चारित्र वाला) होता है। जो सामाचारी से विपरीत आचरण करता है, मलगण४. संसक्त-संसर्गवश स्थापित आदि का भोजी संक्लिष्ट आचार उत्तरगुणों में लगे अतिचारों की निंदा, आलोचना और प्रायश्चित्त वाला होता है। नहीं करता, वह अवसन्न (बहुतर दोषसेवी) है। (पार्श्वस्थ आदि तीन श्रेणियों में विभक्त हैं१. उत्कृष्ट दूषित-यथाच्छंद। ये उत्सत्र प्ररूपणा करते हैं। दुविधो खलु ओसण्णे, देसे सव्वे य होति नायव्वो। २. मध्यम दूषित-पार्श्वस्थ आदि। ये महाव्रत-समिति-गुप्तियों देसोसण्णो तहियं, आवासादी इमो होति॥ में अनेक दोष लगाते हैं। आवस्सग-सज्झाए, पडिलेहण-झाण-भिक्ख भत्तठे। ३. जघन्य दुषित-काथिक आदि। ये सामान्य स्खलना करते हैं।) आगमणे निग्गमणे, ठाणे य निसीयण तुयट्टे॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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