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शय्यातर
आहारोवहि दुविहो, बिदु अण्णे पाण ओहुवग्गहिए । असणादिचउर ओहे, उवग्गहे छव्विहो एस ॥ अण्णे पाणे वत्थे, पादे सूयादिया य चउरट्ठ । असणादी वत्थादी, सूचादि चउक्कका तिन्नि ॥ (बृभा ३५३२-३५३४) शय्यातरपिंड दो प्रकार का, चार प्रकार का, छह प्रकार का, आठ प्रकार का तथा बारह प्रकार का होता है। ० दो प्रकार - १. आहार २. उपधि ।
२. पान
३. औधिक उपकरण
० चार प्रकार - १. अन्न ४. औपग्रहिक उपकरण ।
० छह प्रकार- १. अन्न ५. औधिक उपकरण ६. औपग्रहिक उपकरण ।
२. पान ३. खाद्य ४. स्वाद्य
० बारह प्रकार - १. अन्न २. पान ३. खाद्य ४. स्वाद्य ५. वस्त्र ६. पात्र ७. कम्बल ८. पादप्रोञ्छन ९. सूई १०. कैंची ११. नखच्छेदनी १२. कर्णशोधनी ।
• तृण आदि शय्यातरपिंड नहीं
तण- डंगल-छार-मल्लग - सेज्जा- संथार-पीढ-लेवादी । सेज्जातरपिंडो सो, ण होति सेहो य सोवहिओ ॥ (बृभा ३५३५)
तृण, ढेला, राख, मल्लक, शय्या-संस्तारक, पीठ - फलक, लेप आदि शय्यातरपिंड नहीं होते । यदि शय्यातर का पुत्र दीक्षित होता हो, तो उपधि सहित वह शैक्ष शय्यातरपिंड नहीं होता । ९. श्य्यातरपिंड और अतिथि, भागीदार आदि
सागारियस्स आएसे अंतो वगडाए भुंजइ निट्ठिए निसट्टे पाडिहारिए, तम्हा दावए, नो से कप्पड़ पडिगाहेत्तए ।... अपाडिहारिए, तम्हा दावए, एवं से कप्पड़ पडिगाहेत्तए ॥ सागारियस्स नायए सिया सागारियस्स एगव गडाए अंतो एगपयाए ...अभिनिपयाए सागारियं चोवजीवइ, तम्हा दावए, नो से कप्पड़ पडिगाहेत्तए । (व्य ९ / १, २, ९, १० शय्यातर के घर में कोई अतिथि भोजन करता घर में निष्पन्न भोजन प्रातिहारिक के रूप में अतिथि को प्रदान किया
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आगम विषय कोश- २
जाता है, वह भोजन साधु को दे तो साधु उसे ग्रहण नहीं कर सकता, अप्रातिहारिक आहार अतिथि से ग्रहण कर सकता है।
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शय्यातर का स्वजन उसके घर में एक या पृथक् चूल्हे पर भोजन पकाये और वह शय्यातर का उपजीवी हो तो उसके द्वारा प्रदत्त वह भोजन साधु नहीं ले सकता ।
सागारियस्स चक्कियसाला साहारणवक्कयपउत्ता, तम्हा दावए, नो से कप्पड़ पडिगाहेत्तए |" निस्साहारणवक्कयपत्ता ... कप्पड़ पडिगाहेत्तए ॥ (व्य ९ / १७, २०)
० आठ प्रकार- १. अन्न २. पान ३. वस्त्र ४ पात्र ५. सूई तो वहां से साधु तेल ग्रहण कर सकता है या साधु शय्यातर के ६. कैंची ७. नखछेदनी ८. कर्णशोधनी ।
साझीदार की स्वतंत्र स्वामित्व वाली वस्तु ले सकता है। १०. शय्यातरपिंड कहीं भी अनुज्ञात क्यों नहीं ?
तित्थंकरपडिकुट्ठो, आणा अण्णाय उग्गमो ण सुज्झे । अविमुत्ति अलाघवता, दुल्लभ सेज्जा य वोच्छेदो ॥ पुर- पच्छिमवज्जेहिं, अवि कम्मं जिणवरेहिं लेसेणं । भुत्तं विदेहएहि य, ण य सागरियस्स पिंडो उ ॥ (बृभा ३५४०, ३५४१ )
शय्यातर और उसके भागीदार अशय्यातर की साधारण अवक्रय प्रयुक्त तैलविक्रयशाला हो-तैलविक्रय से प्राप्त मूल्य में शय्यातर का भी विभाग हो, उस शाला में से साझीदार तैल दे तो साधु उसे नहीं ले सकता। दोनों की पृथक् अवक्रयप्रयुक्त चक्रिकशाला हो
तीर्थंकरों ने शय्यातरपिंड का निषेध किया है। उसे ग्रहण करने से आज्ञा की आराधना नहीं होती। निकटवर्ती निवास के कारण अज्ञातउच्छ नहीं होता। अन्न-पान आदि के निमित्त से बार-बार उस घर में प्रवेश करने से उद्गम भी शुद्ध नहीं होता । स्वाध्याय-श्रवण से आकृष्ट होकर शय्यातर उसे प्रणीत द्रव्य देता है तो ग्रहण-लोलुपता के कारण निर्लोभता नहीं सधती। विशिष्ट आहार के लाभ से शरीर का लाघव तथा प्रचुर वस्त्र आदि के लाभ से उपकरण का लाघव नहीं रहता। जिसने मुनियों को शय्या दी है, उसे आहार आदि भी देना है, इस भय से गृहस्थ द्वारा शय्या मिलना दुर्लभ हो जाता है अथवा उसका व्यवच्छेद हो जाता है।
प्रथम तीर्थंकर ऋषभ और अंतिम तीर्थंकर महावीर के अतिरिक्त शेष बाईस तीर्थंकरों तथा विदेहक्षेत्र के तीर्थंकरों ने किसी एक अपेक्षा से आधाकर्म आहार की अनुज्ञा दी है (जिस साधु के
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