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शय्यातर
सागारिया पारिहारिया, एगं तत्थ कप्पागं ठवइत्ता अवसेसे निव्विसेज्जा ॥ (क २/१३) सहिं वा वि भणिया, एग ठवेत्ताण णिव्विसे सेसे। गणदेउलमादीसु गिण्हंति वारएणं, अणुग्गहत्थीसु जह रुई तेसिं (बृभा ३५८३, ३५८४)
व...........॥
एक गृहस्वामी पारिहारिक - भिक्षाग्रहण की दृष्टि से परिहर्त्तव्य होता है । एक सागारिक की तरह दो, तीन, चार या पांच सागारिक पारिहारिक होते हैं । कारणवश या श्रद्धालुओं द्वारा निवेदन किए जाने पर अनेक शय्यातरों में से एक को शय्यातर स्थापित कर शेष घरों में भिक्षार्थ प्रवेश किया जा सकता है।.
जब मुनि बहुजनसाधारण देवकुल, सभा आदि में ठहरे, तब एक को शय्यातर स्थापित कर शेष का आहार ग्रहण करे। यदि वे सभी शय्यातर के लाभ को प्राप्त करना चाहते हों, तो उन सबकी रुचि के अनुसार बारी-बारी से उनको शय्यातर स्थापित करे । ५. अवग्रह की अनुज्ञा किससे ?
विहवधूया नातिकुलवासिणी सावि ताव ओग्गहं अणुण्णवेयव्वा किमंग पुण पिया वा भाया वा पुत्ते वा पहेवि ओग्गहे ओगेहियव्वे ॥ (व्य ७/२५) आदेस - दास भइए, तिरिक्क-जामातिए य दिण्णा उ । अस्सामि मास लहुओ, सेस पभूऽणुग्गहेणं वा ॥ गहपति गिवतिणी वा, अविभत्तसुतो अदिन्नकण्णा वा । पभवति निसिद्धविहवा, आदिट्ठे वा सयं दाउं ॥ (व्यभा ३३४६, ३३४८)
जो विधवा पुत्री अपने पिता के घर में रहती है, उससे भी अवग्रह की आज्ञा ली जा सकती है, तो फिर पिता, भ्राता और पुत्र की आज्ञा क्यों नहीं ली जा सकती ?
अतिथि, दास, भृतक, पृथक् घर में रहने वाले दामाद को प्रदत्त कन्या - ये सब घर के स्वामी नहीं हैं। इनसे अनुज्ञा ग्रहण करने वाला लघुमा प्रायश्चित्त का भागी होता है।
गृहपति, गृहपत्नी, अविभक्तसुत (जिसने माता-पिता से
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आगम विषय कोश- २
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पृथक् घर नहीं बसाया है, धन का बंटवारा नहीं किया है), अदत्तकन्या (अथवा गृहजामाता ) – ये सब प्रभु हैं, अनुज्ञापनीय हैं। विधवा दुहिता, जो घर में प्रमाणीकृत है तथा जो व्यक्ति स्वामी द्वारा आदिष्ट है, वह अप्रभु भी अनुज्ञापनीय है । ६. पथ में भी शय्यातर, यक्ष शय्या तर पहिए वि ओग्गहं अणुण्णवेयव्वे | (व्य ७/२६) वीसमंता वि छायाए, जं तहिं पढमं ठिया । चिट्ठेति पुच्छिउं ते वि, पंथिए किं जहिं वसे ॥ वसंति व जहिं गागपरिग्गहे । ठावंतेगमसंथरे ॥
रत्तिं,
तत्तिए तु
तरे
कुज्जा
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(व्यभा ३३५२, ३३५३)
पथ में भी अवग्रह अनुज्ञापयितव्य है। वृक्ष की छाया में जो पथिक पहले से ही विश्राम कर रहे हों, उन्हें पूछकर ही वहां ठहरे। जहां वृक्ष के नीचे या अन्यत्र प्रवास करना हो, वहां अवश्य अनुज्ञापना करे। रात्रि में वहां रहना हो तो एक या अनेक, जितने पथिकों से वह स्थान या वृक्ष परिगृहीत है, उन सबको शय्यातर स्थापित करे। यदि यह संभव न हो, अपर्याप्त हो तो किसी एक को शय्यातर माने ।
भूयाइपरिग्रहिते, दुमम्मि तमणुण्णवित्तु सज्झायं । एगेण अणुण्णविए, सो च्चेव य उग्गहो सेसे ॥ सामी अणुविज्जइ, दुमस्स जस्सोग्गहो व्व असहीणे।" जक्खो च्चिय होइ तरो, बलिमादीगिण्हणे भवे दोसा । सुविणे ओयरिए वा, संखडिकारावणमभिक्खं ॥ (बृभा ४७७३, ४७७४, ४७७६)
जो वृक्ष व्यंतर देव द्वारा परिगृहीत है, वहां मुनि उस व्यंतर की अनुज्ञा लेकर स्वाध्याय करे। एक मुनि द्वारा अनुज्ञा प्राप्त वह अवग्रह अन्य मुनियों के लिए भी अनुज्ञात है।
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मुनि वृक्ष के स्वामी की अनुज्ञा ले। स्वामी वहां न हो तो 'जिसका स्थान है, उसकी आज्ञा है' ऐसा कहकर अनुज्ञा ले 1 वह वृक्ष जिस यक्ष के द्वारा अधिष्ठित होता है, वह यक्ष ही वहां स्थित साधुओं का शय्यातर होता है। उसके लिए अर्पित कूर आदि नैवेद्य शय्यातरपिण्ड है, उसे ग्रहण करना सदोष है।
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