Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 605
________________ शय्या ५५८ आगम विषय कोश-२ तृणसंस्तारक तथा फलक-ग्रहण के कारण करणं नाम यत साधना करणं कतम-तणानां प्रस्तरणं, ० अशिव आदि कारणों से मुनि जब ऐसे प्रदेश में चला जाता है, कम्बिकानां बन्धनं फलकस्य स्थापनम्। (क ३/२५, २६ वृ) जहां वर्षारात्र में जल की प्रचुरता रहती है। जलप्लावित व शीतल ......विकरण पासद्धं वा, फलग तणेसं त साहरणं॥ भूमि के कारण उपधि कुथित हो सकती है, अजीर्ण का भय रहता (बृभा ४६१२ वृ) है, वहां अवश्य तृण ग्रहण करने चाहिये। ० कीचड़, कुंथु आदि प्राणियों से संसक्त भूमि, हरितकाय आदि निर्ग्रन्थ प्रातिहारिक शय्यासंस्तारक को ग्रहण कर कार्य कारणों से संस्तारक-फलक ग्राह्य हैं। सम्पन्न होने पर उसे उसके स्वामी को सौंपे बिना संप्रव्रजन० ग्लान और अनशनप्रतिपन्न के लिए सामान्यतः वस्त्रमय ग्रामांतर विहार नहीं कर सकते। जो प्रत्यर्पणीय-लौटाने योग्य संस्तारक हो, जिससे कोमलता के कारण उसे समाधि मिल वस्तु है, वह प्रातिहारिक कहलाती है। सके। वस्त्रसंस्तारक के अभाव में अझषिर, संधि व बीजों से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी शय्यातर के शय्यासंस्तारक को ग्रहण रहित तथा एकमुखी कुश, वच्चक आदि तृणों का उपयोग करना कर प्रयोजन पूर्ण होने पर उसका विकरण किए बिना विहार नहीं चाहिए। कर सकते। साधु के द्वारा जो कृत है, वह अविकरण है। जैसे० वर्षा में फलकरूप संस्तारक अवश्य ग्रहण करना चाहिए। तृणों का प्रस्तरण करना, कम्बिकाओं को बांधना आदि। जो शय्यासंस्तारक शय्यातर के घर में जहां से जिस प्रकार २३. वृद्धावास आदि के योग्य शय्या-संस्तारक से लिया था, उसे वहीं उसी प्रकार से रखना, जैसे-फलक को से अहालहुसगं सेज्जासंथारगं गवेसेज्जा, जं चक्किया एक पार्श्व में रखना या ऊंचा करके रखना, तृणों को इकट्ठा करना, एगेणं हत्थेणं ओगिज्झ जाव एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा कम्बिकाओं के बंधन को खोलना-यह विकरण है। (वस्तु को अद्धाणं परिवहित्तए, एस मे हेमंतगिम्हासु भविस्सइ॥"एस यथावस्थित रूप में सौंपने से गृहस्थ के मन में साधु के प्रति प्रीति मे वासावासासु भविस्सइ।"चउयाहं वा पंचाहं वा अद्धाणं और प्रतीति उत्पन्न होती है, भविष्य में उस वस्तु की प्राप्ति सहज परिवहित्तए, एस मे वुड्डावासासु भविस्सइ॥ (व्य ८/२-४) होती है और अचौर्य महाव्रत का पालन होता है।) काले जा पंचाहं, परेण वा खेत्त जाव बत्तीसा। से भिक्खू"अभिकंखेज्जा संथारगं पच्चप्पिणित्तिए। अप्पडिहारी ॥ (व्यभा ३४७५) सेज्जं पुण संथारगं.."सअंडं सपाणं सबीअं सहरियं... मनि इतने हल्के शय्यासंस्तारक की गवेषणा करे कि जिसे मक्क्डासंताणगं तहप्पगारं संथारगं णो पच्चप्पिणेज्जा" एक हाथ से उठाकर एक. दो या तीन दिन तक मार्ग में वहन किया अप्पंडं......"तहप्पगारं संथारगं पडिलेहिय-पडिलेहिय. जा सके तथा जो हेमन्त-ग्रीष्म और वर्षाकाल के प्रायोग्य हो। वर्षाकाल के प्रायोग्य हो। पमज्जियपमज्जिय, आयाविय-आयाविय, विणिद्धणिय__ वृद्धावास के लिए ऐसे अप्रातिहार्य शय्यासंस्तारक की गवेषणा विणिद्धणिय तओ संजयामेव पच्चप्पिणेज्जा। करनी चाहिए, जिसे बत्तीस योजन की दूरी से तथा चार, पांच या (आचूला २/६८, ६९) उससे अधिक दिनों में भी लाया जा सके। भिक्षु संस्तारक को उसके स्वामी को प्रत्यर्पित करना चाहे २४. प्रातिहारिक संस्तारक-प्रत्यर्पण विधि और वह संस्तारक यदि अंडे, जीवजन्त, बीज, हरित और मकड़ी नो कप्पड""पाडिहारियं सेज्जा-संथारयं आयाए के जालों से युक्त हो तो उस प्रकार के संस्तारक को न लौटाये। अप्पडिहट्ट संपव्वइत्तए॥नो कप्पइ“सागारियसंतियं सेज्जा- यदि वह संस्तारक अंडे आदि से रहित हो तो उसका धीमे-धीमे संथारयं आयाए अविकरणं कट्ट संपव्वइत्तए॥ बार-बार प्रतिलेखन कर, प्रमार्जन कर, धूप में आतापित कर, प्रतिहार:-प्रत्यर्पणं तमहतीति प्रातिहारिकम्।"अवि- अच्छी तरह से झाड़कर यतनापूर्वक उसके स्वामी को सौंपे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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