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आगम विषय कोश-२
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शय्या
२०. शय्या-संस्तारक प्रतिमा
उत्कुटुको वा निषण्णो वा पद्मासनादिना सर्वरात्रमास्ते.... । ...''इमाहिं चउहिं पडिमाहिं संथारगं एसित्तए॥
(आचूला २/६२-६६ की वृ) "पढमा पडिमा-से भिक्खू"उद्दिसिय-उद्दिसिय संथारगं भिक्ष चार प्रतिमाओं-अभिग्रहविशेषों से संस्तारक का जाएज्जा,"तणं वा, कुसं वा," ॥अहावरा दोच्चा पडिमा- अन्वेषण करे। वे प्रतिमाएं ये हैं""पेहाए संथारगंजाएज्जा ॥ तच्चा पडिमा-"जस्सुवस्सए १. उद्दिष्ट-प्रथम प्रतिमा का पालन करने वाला मुनि निश्चय संवसेज्जा, ते तत्थ अहासमण्णागए, तं जहा-इक्कडे वा करता है कि मैं उद्दिष्ट (नामोल्लेखपूर्वक संकल्पित) फलहक कढिणे वा तस्स लाभे संवसेज्जा, तस्स अलाभे उक्कुडुए आदि संस्तारक मिलेगा तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं। वा, णेसज्जिए वा विहरेज्जा...... चउत्था पडिमा"अहा- २. प्रेक्ष्य-इसमें मुनि निश्चय करता है कि मैं उद्दिष्ट संस्तारक में संथडमेव संथारगंजाएज्जा, तं जहा-पुढविसिलं वा, कट्ठसिलं दृष्ट को ही ग्रहण करूंगा, अदृष्ट को नहीं। वा "तस्स लाभे संवसेज्जा, तस्स अलाभे उक्कुडुए वा, ३. गृहस्थित-मैं उद्दिष्ट संस्तारक यदि शय्यातर के घर में होगा णेसज्जिए वा विहरेज्जा...॥ (आचूला २/६२-६६) तो ग्रहण करूंगा, दूसरे स्थान से लाकर उस पर नहीं सोऊंगा। भिक्षु चार प्रतिमाओं से संस्तारक की एषणा करे
४. यथासंस्तृत-मैं उद्दिष्ट संस्तारक-शयनयोग्य शिलापट्ट आदि
सहज ही बिछा हुआ मिलेगा तो सोऊंगा, अन्यथा नहीं।। १. पहली प्रतिमा-भिक्षु नामोल्लेखपूर्वक संस्तारक की याचना
गच्छनिर्गत (जिनकल्पी आदि) मुनि प्रथम दो प्रतिमाओं करे, जैसे-तृण, कुश आदि का संस्तारक।
से संस्तारक ग्रहण नहीं करते, अंतिम दो में से एक का अभिग्रह २. दूसरी प्रतिमा-संस्तारक को देखकर उसकी याचना करे।
करते हैं। गच्छवासी चारों प्रतिमाओं से ग्रहण कर सकते हैं। ३. तीसरी प्रतिमा-भिक्षु जिस उपाश्रय में रहे, इक्कड, कढिण
मुनि गच्छवासी हो या गच्छनिर्गत, यदि शय्यादाता संस्तारक तृण आदि यथासमन्वागत-वहीं विद्यमान हों, तो स्वामी से आज्ञापूर्वक उन्हें प्राप्त कर उनका उपयोग करे, यदि वहां प्राप्त न
देता है तो उसे ग्रहण करता है, अन्यथा पूरी रात उत्कुटुकासन हों तो उत्कुटुक या नैषधिक आसन में रात्रि बिताए।
अथवा पद्मासन आदि निषद्याओं में स्थित रहता है। ४. चतुर्थ प्रतिमा-यथासंस्तृत संस्तारक की याचना करे, जैसे- २१. यथारानिक क्रम से शय्याग्रहण पृथ्वीशिला, काष्ठशिला। यथासंस्तृत संस्तारक मिले तो ग्रहण कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहाराइणियाए करे, न मिले तो उत्कुटुक या नैषद्यिक आसन में रात बिताए। सेज्जा-संथारए पडिग्गाहित्तए॥ (क ३/१९) ..."चतसृभिः 'प्रतिमाभि' अभिग्रह-विशेषभूताभिः
साधु-साध्वियां यथारानिक-बड़े-छोटे के क्रम से संस्तारकमन्वेष्टुं, ताश्चेमा:-उद्दिष्ट-प्रेक्ष्य-तस्यैव-यथा
शय्यासंस्तारक-स्थान-बिछौना ग्रहण करें। संस्तृतरूपाः, तत्रोद्दिष्टा फलहकादीनामन्यतमद् ग्रहीष्यामि नेतरदिति प्रथमा, यदेव प्रागुद्दिष्टं तदेव द्रक्ष्यामि ततो २२. संस्तारक-फलक-ग्रहण क्यों? ग्रहीष्यामि नान्यदिति द्वितीया, तदपि यदि तस्यैव शय्यातरस्य
....तणेसु, देस गिलाणे य उत्तमढे य। गृहे भवति ततो ग्रहीष्यामि नान्यत आनीय तत्र शयिष्य इति चिक्खल्ल-पाण-हरिते, फलगाणि वि कारणज्जाते॥ तृतीया, तदपि "यदि यथासंस्तृतमेवास्ते ततो ग्रहीष्यामि
असिवादिकारणगता, उवधी कत्थण अजीरगभया वा। नान्यथेति चतुर्थी प्रतिमा। आसु च प्रतिमास्वाद्ययोः प्रतिम- अझुसिरमसंधिऽबीए, एक्कमुहे...॥ योर्गच्छनिर्गतानामग्रहः उत्तरयोरन्यतरस्यामभिग्रहः, गच्छान्त- गेलण्ण उत्तिमढे, उस्सग्गेणं तु वत्थसंथारो।.... जैतानां तु चतस्रोऽपि कल्पन्ते गच्छान्तर्गतो निर्गतो वा यदि ___ वासासु अपरिसाडी, संथारो सो अवस्स घेत्तव्यो।' वसतिदातैव संस्तारकं प्रयच्छति ततो गृह्णाति, तदभावे
(व्यभा ३३९५, ३३९६, ३३९९, ३४११)
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