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आगम विषय कोश - २
एक अहोरात्र होता है।) वे छह हैं - उत्तरफल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तरभद्रपदा, पुनर्वसु, रोहिणी और विशाखा । इनमें से किसी नक्षत्र में मुनि के कालगत होने पर दर्भमय दो पुतले बनाने चाहिये । अन्यथा दो अन्य साधु दिवंगत हो सकते हैं।
२. समक्षेत्र नक्षत्र - तीस मुहूर्त्त तक चन्द्रमा के साथ योग करने वाले नक्षत्र । वे पन्द्रह हैं- अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिर, पुष्य, मघा, पूर्वफल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढा, श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वभद्रपदा और रेवती । मृत्यु के समय समक्षेत्र नक्षत्र हो तो एक पुतला बनाकर शव के समक्ष कहना चाहिये - यह तुम्हारा द्वितीय है। पुतला नहीं करने पर वह एक अन्य साधु को आकर्षित करता है।
३. अपार्धक्षेत्र नक्षत्र - चन्द्रमा के साथ पन्द्रह मुहूर्त्त तक योग करने वाले नक्षत्र । वे छह हैं - शतभिषक्, भरणी, आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा । अपार्धक्षेत्र अथवा अभीचि नक्षत्र में मृत्यु होने पर एक भी 'पुतला नहीं करना चाहिये ।
६. शव - परिष्ठापन दिन में या रात में ?
जं वेलं कालगतो, निक्कारण कारणे भवें निरोधो ।'' हिम- तेण - सावयभया, पिहिता दारा महाणिणादो वा । ठवणा नियगा व तहिं, आयरिय महातवस्सी वा ॥ णंतक असती राया, वऽतीति संतेपुरो पुरवती तु । णीति व जणणिवणं, दार निरुद्धाणि णिसि तेणं ॥ (बृभा ५५१८-५५२० )
साधु जिस समय कालगत हुआ हो, उसका उसी समय निर्हरण करना चाहिए, फिर चाहे रात हो या दिन । लेकिन रात्रि में विशेष हिम गिरता हो, चोरों या हिंसक जानवरों का भय हो, नगर के द्वार बन्द हों, अथवा मृतक महाजनों द्वारा ज्ञात हो अथवा किसी ग्राम की ऐसी व्यवस्था हो कि वहां रात्रि में शव को बाहर नहीं ले जाया जाता, मृतक के संबंधियों ने पहले से ऐसा कहा हो कि हमको पूछे बिना मृतक को न ले जाया जाए अथवा मृतक मुनि प्रसिद्ध आचार्य हो अथवा अनशन का पालन कर कालगत हुआ हो अथवा महान् तपस्वी हो तो शव को रात्रि के समय नहीं ले जाना चाहिए।
इसी प्रकार यदि सफेद कपड़ों का अभाव हो, नगरनायक
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महास्थंडिल
अथवा अंतःपुर सहित राजा जनसमूह के साथ नगर में प्रवेश कर रहा हो अथवा नगर के बाहर जा रहा हो, उस स्थिति में शव का निर्हरण दिन में नहीं, रात्रि में करना चाहिए ।
भिक्खू ओवा वियाले वा आहच्च वीसुंभेज्जा, तं च सरीरगं केइ वेयावच्चकरे इच्छेज्जा एगंते बहुफासु पएसे परिवेत्त, अथिया इत्थ केइ सागारियसंतिए उवगरणजाए अचित्ते परिहरणारिहे, कप्पड़ से सागारियकडं गहाय तं सरीरगं एगंते बहुफासुए पएसे परिद्ववेत्ता तत्थेव उवनिक्खिवियव्वे सिया ॥
'आहच्च' कदाचिद् 'विष्वग् भवेत्' जीवशरीरयोः पृथग्भावमाप्नुयात्, म्रियत इत्यर्थः । ....' परिहरणाईं ' परिभोगयोग्यमुपकरणजातम्, वहनकाष्ठमित्यर्थ: । ... सागारिक- कृतं ' सागारिकस्यैव सत्कमिदं नास्माकम् इत्येवं गृहीत्वा । (क ४/२५ वृ)
रात्रि में अथवा विकाल वेला में कदाचित् भिक्षु मृत्यु को प्राप्त हो जाए, कोई वैयावृत्त्यकर मुनि एकांत और बहुप्रासुककीटिका आदि प्राणियों से सर्वथा रहित प्रदेश में उस शरीर का परिष्ठापन करना चाहे, (उपाश्रय में) गृहस्थ का कोई परिभोगयोग्य अचित्त उपकरण - वहनकाष्ठ उपलब्ध हो तो वह मुनि यह गृहस्थ का है, हमारा नहीं - इस प्रकार वहनकाष्ठ को ग्रहण कर, उस पर शव को वहनकर एकांत बहुप्रासुक प्रदेश में उसको परिष्ठापित कर सकता है। मृत शरीर को परिष्ठापित कर जहां से वह वहनकाष्ठ ग्रहण किया है, वहीं उसे रख देना चाहिये ।
७. शव - परिष्ठापन के लिए निर्गमन
सुत्त-त्थतदुभयविऊ, पुरतो घेत्तूण पाणग कुसे य । गच्छति जड़ सागरियं परिट्ठवेऊण आयमणं ॥ जत्तो दिसाऍ गामो, तत्तो सीसं तु होइ कायव्वं । उतरक्खणट्ठा, अमंगलं लोगगरिहा य ॥ (बृभा ५५३०, ५५३१)
शव को परिष्ठापन के लिए ले जाते समय सूत्र - अर्थ - सूत्रार्थविद् मुनि पात्र में शुद्ध पानक ले तथा एक हाथ चार अंगुल प्रमाण समान रूप से काटे हुए कुश लेकर, पीछे मुड़कर न देखते
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