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वीर्य
जिस क्षेत्र में आषाढ़ मासकल्प किया, उसी क्षेत्र में वर्षावास करने पर न्यून आठ मास और वर्षावासयोग्य क्षेत्र न मिलने पर भाद्रपद शुक्ला पंचमी को पर्युषण करने पर अधिक आठ मास होते हैं। यह न्यूनाधिकता कारणिक स्थविरकल्पी की अपेक्षा से है । जिनकल्पी तथा निष्कारणिक स्थविरकल्पी यथाविधि आठ मास विहार कर नियमतः चार मास वर्षावास करते हैं।
० नौ कल्पी विहार
.....समाणे वा, वसमाणे वा गामाणुगामं दूइज्माणे ॥ 'समाना:' इति जंघाबलपरिक्षीणतयैकस्मिन्नेव क्षेत्रे तिष्ठन्तः, तथा 'वसमाना: ' मासकल्पविहारिणः । (आचूला १/४६ वृ) समाणो नाम समधीनः अप्रवसितः । उदुबद्धिए अट्ठमासे वासावासं च णवमं, एयं णवविहं विहारं विहरंतो वसमाणो भण्णति । (नि २/३८ की चू ) समाणे वुड्डवासी, वसमाणे णवविकप्पविहारी । ..... ( निभा १०५४)
मुनि दो रूपों में वास करते हैं
१. समान (सत्)– जंघाबल की क्षीणता के कारण एक ही क्षेत्र में रहने वाले वृद्धवासी भिक्षु ।
२. वसमान—मासकल्पविहारी। ऋतुबद्ध काल के आठ मास के आठ विहार और वर्षावास का नौवां विहार - इस प्रकार नौकल्पविहारी - ग्रामानुग्राम विहरण करने वाले भिक्षु |
* नौकल्पी विहार
द्र श्रीआको १ श्रमण १२. अराज्य - द्विराज्य- वैराज्यगमन - निषेध
से भिक्खूगामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से अरायाणि वा दोरजाणिवा, वेरज्जाणि वा, विरुद्धरज्जाणि वा सति लाढे विहाराए, संथरमाणेहिं जणवएहिं, णो विहारवत्तियाए पवज्जेज्ज गमणाए ॥ (आचूला ३/१०)
भिक्षु ग्रामानुग्राम परिव्रजन करे, मार्ग में अराजक - राजाविहीन क्षेत्र, द्विराज्य वैराज्य या विरुद्धराज्य वाले प्रदेश हों तो मुनि वहां विहार की प्रतिज्ञा से जाने का संकल्प न करे, यदि विहारयोग्य प्रशस्त क्षेत्र हो, अन्य आर्य जनपद विद्यमान हों।
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आगम विषय कोश - २
वीर्य - नाम कर्म के उदय तथा वीर्यान्तराय कर्म के क्षयक्षयोपशम से प्राप्त शक्ति, सामर्थ्य ।
१. वीर्य प्राप्ति का कारण २. वीर्य के प्रकार
३. अवस्था, आहार और बल
* बालवीर्य संहनन - धृति और कर्मबंध १. वीर्य प्राप्ति का कारण
वीरियं ति वा बलं ति वा सामत्थं ति वा परक्कमोत्ति वा थामोति वा गट्ठा। वीरियं णाम शक्तिः । सा हि वीर्यान्तरायक्षयोपशमाद् भवति । (निभा ४३ की चू)
द्र कर्म
वीर्य - शक्ति वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती है । वीर्य, बल, सामर्थ्य, पराक्रम और स्थाम-ये एकार्थक हैं।
(जीव कांक्षामोहनीय कर्म का बंध करता है। उसका परिणामी कारण प्रमाद और निमित्त कारण योग है। प्रमाद योग से उत्पन्न होता है। योग वीर्य से, वीर्य शरीर से तथा शरीर जीव से उत्पन्न होता है । प्राणी की सारी प्रवृत्तियां जीव और शरीर दोनों के संयोग से होती हैं। वीर्य दो प्रकार का है-क्रियात्मक (सकरण) और अक्रियात्मक (अकरण) । जीव का अपरिस्पन्दात्मक वीर्य केवल जीव से संबद्ध होता है। जीव का परिस्पन्दात्मक वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है । उसी के द्वारा मन, वचन और शरीर की प्रवृत्तियां संचालित होती हैं । - भ १ / १४१ - १४५ वृ)
२. वीर्य के प्रकार
भववीरियं गुणवीरियं चरित्तवीरियं समाधिवीरियं च । आयवीरियं पिय तहा, पंचविधं वीरियं अहवा ॥ बालं पंडित उभयं करणं लद्विवीरियं च पंचमगं । ण हु वीरियपरिहीणो, पवत्तते णाणमादीसु ॥
भववीरियं णिरयभवादिसु । तत्थ णिरयभववीरियं इमं जंतासिकुंभिचक्ककंदुपयण भट्टसोल्लणसिंबलिसूलादीसु भिज्जमाणाणं महंतवेदणोदये वि जं ण विलिज्जति । ... तिरियाण य वसभातीण महाभारुव्वहणसामत्थं, अस्साण धावणं तहा सीय- उण्ह - खुह- पिवासादिविसहणत्तं च । मणुयाण सव्वचरणपडिवत्तिसामत्थं । देवाण वि पंचविहपज्जत्तुप्पत्तणं
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