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वैयावृत्त्य
...बोधिकस्तेना नाम ये मानुषाणि हरन्ति ।' हितं' परिणामपथ्यं मधुरं ' श्रोत्रमनसां प्रह्लादकं । । गन्धहस्ती गजकलभानां यूथाधिपत्यपदमुद्वहमानो गिरिकन्दरादिविषमदुर्गेष्वपि पतितो न तत्परित्यागं करोति, एवमयमपि गणधरपदमनुपालयन् विषमदशायामपि श्रमणवरान्न परित्यजतीति श्रमणवरगन्धहस्तीत्युच्यते । तत इत्थं तदीयवचनं श्रुत्वा समीपवर्ति नामगारिणामित्थं स्थिरीकरणमुपजायते'''' 'यथोक्तकारित्वं' भगवदाज्ञाराधकत्वं ... शौचं ' निरुपलेपता सद्भावसारता वा''''''। (बृभा २००२-२०११ वृ)
महामारी, दुर्भिक्ष, राजपद्वेष, चोर आदि का भय, स्वयं की रुग्णता - सेवारत मुनि इन आगाढ़ कारणों के उपस्थित होने पर सेवार्थी ग्लान मुनि को यद्यपि यतनापूर्वक विसर्जित कर सकते हैं, तथापि वे विसर्जित नहीं करते हैं, उसे वहन करते हैं।
अथवा वह ग्लान मुनि कहे कि आप मुझे छोड़कर चले जाएं, तब 'ऐसा ही हो' इस रूप में स्वीकृति देने वाला मुनि चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है।
मार्ग में प्रत्यन्तदेशवासी म्लेच्छ, अपहरणकर्त्ता आदि के मिलने पर अथवा जनपद-देश- नगर के घोर विनाश का प्रसंग उपस्थित होने पर भी सुविहित मुनि ग्लान को साथ लेकर आगे बढ़ते हैं, उसका परित्याग नहीं करते ।
'भंते! इस आपदा से आप अपनी सुरक्षा करें। मैं तो मृतप्राय हूं, मुझे क्यों वहन कर रहे हैं। केवल मेरे कारण आप सब विनष्ट न हों ।' ग्लान के इस कथनमात्र पर ज्ञान - चरण सम्पन्न आचार्य अचपल, सत्य, हितकारी और परित्राणकारी वचनों से उसे आश्वस्त करते हैं
'हम अभयदान के द्वारा जगत के सब जीवों का हितसम्पादन करने वाले साधु का परित्याग नहीं करते - यह हमारा धर्म है। यदि हम साधु का परित्याग करते हैं तो हमारे प्राणधारणमात्र से क्या प्रयोजन ? स्वजन की भांति आचार्य ग्लान का योगक्षेमसंवहन करते हुए इस प्रकार का परिणामसुंदर, आह्लादकारी और आश्वासअंकुर को उत्पन्न करने वाला वचन बोलते हैं।'
'आचार्य श्रमणवरगंधहस्ती कहलाते हैं। जैसे गजकलभों के यूथाधिपत्यपद का परिवहन करता हुआ गंधहस्ती गिरिकन्दरा
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आगम विषय कोश - २
आदि विषम मार्गों में जाने पर भी कलभों का परित्याग नहीं करता, वैसे ही गणधरपद का संवहन करते हुए आचार्य विषम अवस्थाओं में भी श्रमणवरों का परित्याग नहीं करते।'
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इस प्रकार के गुरुवचनों को सुनकर समीपस्थ गृहस्थों का इस रूप में स्थिरीकरण होता है- यदि कहीं संयम, तप, सुदृढ़ मैत्री, भगवान की आज्ञा की आराधना, ब्रह्मचर्यपालन और शौचनिरुपलेपता या सद्भावसार उपलब्ध है, तो वह इन्हीं साधुओं में उपलब्ध है, अन्यत्र नहीं ।
वैयावृत्त्य में तत्परता : उपेक्षा से प्रायश्चित्त
सुहिया मोत्तिय भणती, अच्छह वीसत्थया सुहं सव्वे । एवं तत्थ भणंते, पायच्छित्तं भवे तिविहं ॥ भत्तादिसंकिलेसो, अवस्स अम्हे वि तत्थ न तरामो । काहिंति केत्तियाणं, तेणं चिय तेसु अद्दन्ना ॥ अम्हेहिं तहिँ गएहिँ, ओमाणं उग्गमाइणो दोसा । एवं तत्थ भणते, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥ ''यद्याचार्य एवं ब्रवीति ततश्चतुर्गुरु, उपाध्यायो ब्रवीति चतुर्लघु, भिक्षुर्ब्रवीति मासगुरु । (बृभा १८८७ - १८८९ वृ)
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मासकल्प के लिए स्थित मुनि अन्यत्र स्थित ग्लान मुनि के बारे में सुनते हैं। वे कहते हैं-हमें सेवा के लिए वहां जाना चाहिए। यह सुनकर कोई मुनि कहता है- मैं यहां सुखी हूं। आप सभी विश्वस्त होकर सुखपूर्वक यहां रहें। ऐसी बात कहने वाले आचार्य हों तो उन्हें चतुर्गुरु, उपाध्याय को चतुर्लघु और भिक्षु को मासगुरु प्रायश्चित्त आता है।
कुछ मुनि कहते हैं-वहां आहार पानी की कठिनाई आएगी। हम भी अवश्य अपना निर्वाह नहीं कर सकेंगे। वहां के श्रमण भी सेवाकार्यों में व्यस्त हैं, वे कितने श्रमणों का आतिथ्य करेंगे। हमारे वहां जाने पर आहार की कमी से उद्गम आदि दोषों की संभावना है। ऐसा कहने वालों को चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है।
भिक्खू गिलाणं सोच्चा ण गवेसति ॥ उम्मग्गं वा पडिपहं वा गच्छति, गच्छंतं वा सातिज्जति ।। चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घातियं ॥ (नि १०/३०, ३१, ४१)
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