Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 593
________________ शय्या ५४६ आगम विषय कोश-२ परम्परा का निर्देश करने के लिए 'द्विगण-त्रिगण' इन दोनों पदों का जावंतिया उ सेज्जा, अन्नेहिं निसेविया अभिक्कंता। प्रयोग सार्थक है। -आगम सम्पादन की समस्याएं, पृ. ९०) अन्नेहि अपरिभुत्ता, अनभिक्कंता उ पविसंते॥ ० अभिक्रांता....."अल्पक्रिया शय्या अत्तट्टकडं दाउं, जतीण अन्नं करेंति वज्जा उ। समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए समुद्दिस्स जम्हा तं पुव्वकयं, वजंति ततो भवे वज्जा। तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिताई भवंति,..."जे भयंतारो पासंडकारणा खलु, आरंभो अभिणवो महावज्जा। तहप्पगाराइं"भवणगिहाणि वा तेहिं ओवयमाणेहिं ओवयंति, समणट्ठा सावज्जा, महसावज्जा उ साहूणं॥ अयमाउसो! अभिक्कंत-किरिया वि भवइ॥....."तेहिं जा खलु जहुत्तदोसेहिँ वज्जिया कारिया सअट्ठाए। अणोवयमाणेहिं ओवयंति, अयमाउसो! अणभिक्कंत- परिकम्मविप्पमुक्का, सा वसही अप्पकिरिया उ॥ किरिया"॥ (बृभा ५९६-५९९) .."सेज्जाणिमाणि अम्हं अप्पणो सअट्ठाए चेतिताइं . अभिक्रांता शय्या-श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और वनीपकों भवंति,.."सव्वाणि ताणि समणाण णिसिरामो, अवियाई के उद्देश्य से गृहस्थों द्वारा गृह बनवाये हुए हैं, उन भवनगृहों में, वयं पच्छा अप्पणो सअट्ठाए चेतिस्सामो,"""इतरेतरेहिं यावन्तिकी वसति में चरक, पाखंडी या गृहस्थ रह चुकने के पाहुडेहिं वटुंति, अयमाउसो! वज्ज-किरिया वि भवइ॥ पश्चात् साधु रहता है-आयुष्मन्! यह अभिक्रांतक्रिया है। यह "बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए वसति अल्पदोषा है। पंगणिय-पगणिय समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराई ० अनभिक्रांता शय्या-जो यावन्तिकी वसति गृहस्थ आदि द्वारा चेतिताइं भवंति..."महावज्ज-किरिया वि भवइ॥ अपरिभुक्त है, उसमें यदि साधु प्रवेश करते हैं, तो वह .बहवेवणीमए समुद्दिस्स""अगाराई चेतिआइं अनभिक्रांतक्रिया है, अकल्पनीय है। भवंति, ""सावज्ज-किरिया वि भवइ ।“एगं समणजायं ० वा शय्या-हमने जो ये शय्याएं अपने लिए , अपने प्रयोजन समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिताइं भवंति, से बनवाई हैं, वे सब श्रमणों को दे देंगे, तत्पश्चात् हम अपने लिए इयराइयरेहिं पाहुडेहिं दुपक्खं ते कम्मं सेवंति, अयमाउसो! । दूसरी शय्या बनवा लेंगे-इस प्रकार गृहस्थ अपने लिए निर्मित महासावज्ज-किरिया वि भवइ॥ शय्या साधुओं को देकर, अपने लिए पुन: दूसरी शय्या बनाता है। ..."अप्पणो सअट्ठाए तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराई मुनि भेंट रूप में प्रदत्त उन शय्याओं का उपयोग करता हैचेतिताइं भवंति 'जे भयंतारो तहप्पगाराइंभवणगिहाणि वा । आयुष्मन्! यह शय्या वर्ण्य क्रिया है, अतः ग्राह्य नहीं है। गृहस्थ उवागच्छंति, उवागच्छित्ता इयराइयरेहिं पाहुडेहिं एगपक्खं ते पूर्वकृत बस्ती का वर्जन करता है, इसलिए वह वा है। ० महावा शय्या-बहुत से श्रमण, ब्राह्मण आदि को गिन-गिन अभिक्रान्तक्रिया अल्पदोषा चेयम्। अनभिक्रान्त- कर उनके उद्देश्य से गृहनिर्माण का अभिनव आरंभ किया जाता क्रिया अकल्पनीया।"वर्ण्यक्रियाभिधाना"न कल्पते।" है-यह महावाक्रिया है। यह अकल्पनीय है और विशोधिकोटि महावाभिधानाअकल्प्या चेयं विश में है। (विशोधिकोटि द्र श्रीआको १ एषणासमिति) सावधक्रिया. अकल्पनीया चेयं विशुद्धकोटिश्च। . सावद्या शय्या-बहुत से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और आधाकर्मिकवसतिः"महासावधक्रिया""अल्पक्रिया" वनीपकों के उद्देश्य से निर्मित शय्या में साधु रहते हैं-यह शय्या अल्पशब्दोऽभाववाची। (आचला २/३६-४२ व) सावधक्रिया है। यह अग्राह्य और विशोधिको महावज्जा पासंडाण अट्टाए एसा चेव वत्तव्वया, महासावद्या-निग्रंथ श्रमण के उद्देश्य से निर्मित शय्या महासावद्यसावज्जा पंचण्हं समणाणं पगणित-पगणित "महासावज्जा क्रिया से युक्त होती है। गृहस्थ द्वारा उपहार रूप में प्रदत्त उन एगं समणस्स जातं समुद्दिस्स"। (आचूला २/३९-४१ की चू) शय्याओं में रहने वाला साधु द्विपक्षकर्म का-साधुवेश से साधुत्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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