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शय्या
....... दव्वम्मि पट्टिवंसो, भावम्मि चव्विहो भेदो ॥ पासवण ठाण रूवे, सद्दे चेव य हवंति चत्तारि ।...... बंभवयस्स अगुत्ती, लज्जानासो य पीइपरिवुड्ढी । साहु तवोवणवासो, निवारणं तित्थपरिहाणी ॥ (बृभा २५८४, २५८५, २५९७ )
निर्ग्रन्थ गृहस्थ के घर से प्रतिबद्ध शय्या में नहीं रह सकता, निर्ग्रथी रह सकती है। प्रतिबद्ध शय्या के दो प्रकार हैं१. द्रव्य प्रतिबद्ध - जिस उपाश्रय में पृष्ठवंश (बलहरण) गृहस्थ के घर से प्रतिबद्ध होता है।
२. भावप्रतिबद्ध - यह उपाश्रय चार प्रकार का है
० प्रश्रवणप्रतिबद्ध –गृहस्थ और साधु की कायिकी भूमि एक हो । रूपप्रतिबद्ध-जहां स्त्रियों का रूप दिखाई पड़ता हो ।
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स्थानप्रतिबद्ध - गृहस्थ और साधु के बैठने का स्थान एक हो ० शब्दप्रतिबद्ध - जहां रहस्य के शब्द सुनाई पड़ते हों ।
भाव प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने से ब्रह्मचर्य असुरक्षित हो जाता है, पारस्परिक लज्जा का भाव समाप्त हो जाता है, बार-बार देखने से प्रीति पुष्ट होती है । लोग उपहास करते हैं - अहो ! ये साधु लोग तपोवन में रह रहे हैं। अधिकृत व्यक्ति उनके पास दीक्षित होने का निषेध करते हैं, इससे तीर्थ का व्यवच्छेद होता है । अज्जियमादी भगिणी, जा यऽन्न सगारअब्भरहियाओ । विहवा वसंति सागारियस्स पासे अदूरम्मि ॥ बिइयपय कारणम्मी, भावे सद्दम्मि पूवलियखाओ । तत्तो ठाणे रूवे, काइय सविकारसद्दे य॥ नउई - सयाउगो वा, खट्टामल्लो अजंगमो थेरो । अन्नेण उट्ठविज्जइ, भोइज्जइ सो य अन्नेणं ॥ एयारिसम्म रूवे, सद्दे वा संजईण जइऽणुण्णा । समणाण किं निमित्तं, पडिसेहो एरिसे भणिओ ॥ मोहोदएण जइ ता, जीवविउत्ते वि इत्थिदेहम्मि । दिट्ठा दोसपवित्ती, किं पुण सजिए भवे देहे ॥
(बृभा २६१८, २६२२, २६२३, २६२७, २६२८ ) दादी, नानी, भगिनी, भाभी, शय्यातर द्वारा पूजित विधवा आदि स्त्रियां शय्यातर के घर के निकट रहती हों, तो साध्वी उनके द्वारा द्रव्यतः प्रतिबद्ध शय्या में रह सकती है।
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आगम विषय कोश - २
साध्वियां अपवाद रूप से कारणवश भावप्रतिबद्ध उपाश्रय में रह सकती हैं। सबसे पहले उन्हें 'पूपलिकाखादक' के शब्द- प्रतिबद्ध में, वह न हो तो क्रमशः उसी के स्थान प्रतिबद्ध, रूपप्रतिबद्ध और सविकार शब्दयुक्त प्रश्रवण प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहना चाहिए।
पूपलिकाखादक- जो वृद्ध नब्बे या सौ वर्ष का है, जो खट्वाल्ल है- जर्जरित देह के कारण खाट से स्वयं उठ नहीं सकता, चल नहीं सकता, दूसरे ही उसे खाट से उठाते हैं और भोजन कराते हैं ।
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शिष्य ने पूछा- यदि साध्वियों को ऐसे पूपलिकाखाद संबंधी शब्द या रूप से प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने की अनुज्ञा है, तो फिर निर्ग्रन्थों के लिए स्थविराप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने का निषेध क्यों ? आचार्य ने कहा— मोहोदय के कारण पुरुषों की जीववियुक्त स्त्रीदेह प्रतिसेवन की प्रवृत्ति देखी जाती है, तो फिर स्थविरा के सजीव देह के प्रति वह क्यों नहीं होगी ? अतः प्रतिषेध किया गया है। ० आधाकर्मिक और स्त्रीप्रतिबद्ध शय्या : सापेक्ष दृष्टि
एगा मूलगुणेहिं तु अविसुद्धा इत्थि सारिया बितिया । तुल्लारोवणवसही, कारणे कहिं तत्थ वसितव्वं ॥ अधवा गुरुस्स दोसा, कम्मे इतरी य होति सव्वेसिं । जइणो तवोवणवासे, वसंति लोए य परिवातो ॥ अथवा पुरिसाइण्णा, णातायारे य भीयपरिसा य । बालासु य वुड्ढासु य, नातीसु य वज्जइ कम्मं ॥ तम्हा सव्वाणुण्णा, सव्वनिसेहो य णत्थि समयम्मि । आय-व्वयं तुलेज्जा, लाभाकंखि व्व वाणियओ ॥ ( निभा २०६३, २०६५-२०६७)
एक शय्या आधाकर्म आदि मूलगुणों से अशुद्ध है तथा दूसरी शय्या स्त्रीप्रतिबद्ध है। दोनों ही शय्याओं में रहने से तुल्य (चतुर्गुरु) प्रायश्चित्त आता है, तब हमें किस शय्या में रहना चाहिए ?
ऐसा प्रसंग होने पर आधाकर्मिक शय्या में रहना उचित है क्योंकि आधाकर्मिक शय्या में रहने पर केवल गुरु ही प्रायश्चित्त के भागी होते हैं, सब नहीं और स्त्रीप्रतिबद्ध शय्या में रहने वाले सब साधु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। लोक में परिवाद होता है। लोग कह सकते हैं- यतिजन तपोवन में वास करते हैं ।
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