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व्यवहार
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आगम विषय कोश-२
तगराए नगरीए, एगायरियस्स पास निप्फण्णा। शय्या-वसति, उपाश्रय। संस्तारक। सोलस सीसा तेसिं, अव्ववहारी उ अट्ठ इमे॥ १.शय्या के नौ प्रकार मा कित्ते कंव डुकं, कुणिमं पक्कुत्तरं च चव्वाई।
० कालातिक़ाता और उपस्थाना शय्या बहिरं च गुंठसमणं, अंबिलसमणं च निद्धम्मं॥ ० अभिक्रांता""अल्पक्रिया शय्या तेण न बहुस्सुतो वी, होति पमाणं अणायकारी तु। ० पूर्व शय्या उत्तर शय्या से बाधित नाएण ववहरंतो, होति पमाणं जहा उ डमे।। | २. सर्वथा वर्जनीय शय्या : औद्देशिक आदि कित्तेहि पसमित्तं, वीरं सिवकोट्रगं व अज्जासं। ३. सपरिकर्म शय्या-निषेध अरहन्नग धम्मण्णग, खंदिल गोविंददत्तं च॥ ० मूल-उत्तरकरण शय्या : अविशोधिकोटि..... एते उ कजकारी, तगराए आसि तम्मि उ जुगम्मि।
| ४. पुरुषांतरकृत परिकर्मित शय्या कल्पनीय
| ५. बादर-सूक्ष्म प्राभृतिक शय्या का निषेध जेहि कया ववहारा, अक्खोभा अण्णरज्जेसु॥
| ६. उपाश्रय के प्रकार इहलोगम्मि य कित्ती, परलोगे सोग्गती धुवा तेसिं।
__ * निर्दोष उपाश्रय की गवेषणा द्र क्षेत्रप्रतिलेखना| आणाएँ जिणिंदाणं, जे ववहारं ववहरंति॥
७. वृषभ क्षेत्र (व्यभा १६९४, १६९५, १७०४-१७०७) ०क्षेत्र अपर्याप्त : कौन रहे? कौन न रहे?
८. साध्वी-क्षेत्र और कुलस्थविर : भोजिक दृष्टांत - तगरा नगरी में एक आचार्य के पास निष्पन्न सोलह शिष्यों
९. एक द्वार वाले क्षेत्र में रहना निषिद्ध में से आठ शिष्य अव्यवहारी थे, जिनके आठ दोष इस प्रकार हैं
१०. प्रतिबद्ध शय्या-निषेध : पूपलिकाखाद दृष्टांत १. कांकटुक-कोरडूधान्य तुल्य दुश्छेद्य व्यवहार ।
० आधाकर्मिक और स्त्रीप्रतिबद्ध शय्या : सापेक्ष दृष्टि २. कुणप-शव-मांस तुल्य मलिन व्यवहार।
० अप्रतिबद्ध शय्या की गवेषणा, प्रतिबद्ध-यतना ३. पक्व-पतित पक्व फल जैसा अस्थिर व्यवहार ।
* सागारिक शय्या का निषेध क्यों? द्र ब्रह्मचर्य ४. उत्तर-छलपूर्वक उत्तर देना।
* शय्यातर कौन?
द्र शय्यातर ५. चर्व-निष्फल प्रयत्न का पुनः पुनः चर्वण।
११. सदोष शय्या से हानि, निर्दोष शय्या दुर्लभ ६. बधिर-दोषश्रवण में बधिर तुल्य होना।
१२. विविक्त शय्या की गवेषणा ७. गुंठ-माया से व्यवहार की समाप्ति।
१३. गृहकार्य का निवेदन, मुनि द्वारा अस्वीकृति ८. अम्ल-तीखे वचन बोलना।
१४. शय्या-प्रवेश-प्रमार्जनविधि ___* शय्या-ग्रहण-प्रतिलेखन
द्र पर्युषणाकल्प सदोष व्यवहारछेदक प्रशंसनीय नहीं होता। अन्याय करने
___ * रात्रि में शय्याग्रहण
द्र महाव्रत वाला बहुश्रुत भी प्रमाण नहीं होता।
१५. चित्रों के आधार पर सदोष-निर्दोष शय्या न्यायपूर्ण व्यवहार करने वाला प्रमाण होता है, जैसे ये
१६. विषम शय्या में समता आठ व्यवहारी-पुष्यमित्र, वीर, शिवकोष्ठक, आर्यास, अर्हन्नक, १७. गहान्तर-निषद्या-निषेध एवं अपवाद धर्मान्वग, स्कंदिल और गोविंददत्त-ये सब उस युग में तगरा । ० अंतरगृह में धर्मकथा निषिद्ध नगरी में प्रशंसनीय व्यवहारी थे, जिनके द्वारा कुत व्यवहार अन्य १८. शय्या-संस्तारक का निर्वचन और प्रकार राज्यों में भी अक्षोभ्य था।
० शय्या और संस्तारक में भेद-अभेद जो जिनेन्द्र की आज्ञा से व्यवहार की प्रस्थापना करते हैं, |१९. शय्या-संस्तारककल्पिक : ग्रहणविधि उनकी इहलोक में कीर्ति और परलोक में सुगति होती है।
२०. शय्यासंस्तारक प्रतिमा * अवग्रह की सात प्रतिमा
द्र अवग्रह व्यवहार-एक प्रायश्चित्त सूत्र ।
द्र छेदसूत्र * जिनकल्पी की शय्या
द्र जिनकल्प
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