________________
き
7
आगम विषय कोश - २
का और आधाकर्मिक शय्या प्रवास से गार्हस्थ्य का आचरण करता है । महासावद्या शय्या सर्वथा अग्राह्य है ।
आचारांग चूर्णि के अनुसार महावर्ज्या शय्या पाखंडियों— साधु-वेशधारियों के लिए निर्मित होती है - यह वक्तव्यता (गुरु परम्परा) है तथा निर्ग्रथ, शाक्य, तापस, गैरिक और आजीवकइन पांच प्रकार के श्रमणों के लिए निर्मित की जाने वाली शय्या सावद्या है। मात्र निर्ग्रथ श्रमण के लिए निर्मित शय्या महासावद्या है । बृहत्कल्पभाष्य में भी यही तथ्य प्रतिपादित है।
• अल्पसावद्य (निरवद्य) क्रिया - जो घर गृहस्थों द्वारा अपने लिए सप्रयोजन निर्मित हैं, परिकर्म से सर्वथा मुक्त हैं, कालातिक्रांत आदि दोषों से रहित हैं, उन भवनगृहों में साधु आते हैं, आकर अन्यान्य प्राभृतों के उपयोग द्वारा एकपक्ष कर्म - साधुत्व का आसेवन करते हैं । यह शय्या अल्पसावद्यक्रिया होती है। यहां अल्प शब्द अभाववाची है।
(आधाकर्म आदि सावद्य क्रियाओं-दोषों से सर्वथा रहित होने से अल्पक्रिया वसति निरवद्य है, निर्दोष है। उसमें साधु कायोत्सर्ग, स्वाध्याय आदि निरवद्य क्रियाएं करता है, अतः वह अल्पसावद्यक्रिया - निरवद्यक्रिया शय्या है ।)
०
पूर्व शय्या उत्तरशय्या से बाधित
हिट्ठिल्ला उवरिल्लाहि बाहिया न उ लभंति पाहनं । पुव्वाणुन्नाऽभिणवं च चउसु भय पच्छिमाऽभिणवा ॥
५४७
नवापि वसतयः क्रमेण स्थाप्यन्ते, तत्राप्यल्पक्रिया निर्दोषेति प्रथमम् । तद्यथा - अल्पक्रिया कालातिक्रान्ता उपस्थाना... । अत्राधस्तनी अल्पक्रिया, अस्यां यद्यतिरिक्तं कालं तिष्ठति ततः सा कालातिक्रान्तया बाध्यते, सा कालातिक्रान्ता भवतीति भावः । कालातिक्रान्तामपि यदि द्विगुणां द्विगुणामपरिहृत्योपागच्छन्ति ततः सा उपस्थानया बाध्यते, ...... पूर्वस्याः पूर्वस्या अलाभे उत्तरस्या उत्तरस्या अनुज्ञा वेदितव्या ।.........अनभिक्रान्तायामपरिभुक्तेति कृत्वा चिरकृतायामप्यभिनव-दोषो भवति, वर्ण्यादिषु पुनर्याः परिभुक्तास्तासु नाभिनव-दोष:, महासावद्योपाश्रयः तस्मिन्नभिनवकृते वा चिरकृते वा परिभुक्ते वा अपरिभुक्ते वा अभिनवदोषा भवन्ति, एकपक्षनिर्धारणात् । (बृभा ६०० वृ)
Jain Education International
शय्या
पूर्ववर्ती बस्तियां उत्तरवर्ती बस्तियों से बाधित होती हैं । बाधित होने के कारण उन्हें प्रधानता नहीं दी जा सकती। नौ बस्तियों की क्रमशः स्थापना की जाए तो अल्पक्रिया बस्ती को निर्दोष होने के कारण प्रथम स्थान पर स्थापित किया जाता है, जैसे- अल्पक्रिया, कालातिक्रांता, उपस्थाना, अभिक्रांता, अनभिक्रांता, वर्ज्या, महावर्ज्या, सावद्या और महासावद्या ।
मुनि अल्पक्रिया बस्ती में यदि अतिरिक्त काल तक रहता है, तो वह कालातिक्रांता बस्ती से बाधित होती है अर्थात् अल्पक्रिया बस्ती कालातिक्रांता हो जाती है। कालांतिक्रांता भी उपस्थाना बस्ती हो जाती है, यदि दुगुना - दुगुना समय (दो मास अथवा दो वर्षावास) अन्यत्र बिताये बिना ही उस बस्ती में आगमन होता है ।
नौ बस्तियों में पूर्व बस्ती (अल्पक्रिया) निरवद्य होने से अनुज्ञात है। पूर्व - पूर्व बस्ती की अप्राप्ति होने पर उत्तर - उत्तर बस्ती है। अनभिक्रांता, वर्ज्या, महावर्ज्या और सावद्याअनुज्ञात इन चार बस्तियों में अभिनव दोष (साधु के उद्देश्य से कृत गृहनिर्माण में होने वाले आरंभ दोष) की भजना है - कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं भी होता। जैसे- अनभिक्रांता बस्ती चिरकृत होने पर भी अपरिभुक्त होने के कारण अभिनव दोष युक्त है। वर्ज्या आदि बस्तियों में जो परिभुक्त हैं, उनमें अभिनव दोष नहीं
। अंतिम महासावद्या बस्ती केवल साधुओं के उद्देश्य से निर्मित होने के कारण अभिनव दोषों से युक्त होती है, चाहे वह अभिनवकृत हो या चिरकृत, परिभुक्त हो या अपरिभुक्त । २. सर्वथा वर्जनीय शय्या : औद्देशिक आदि
सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा - अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स ॥ बहवे साहम्मिया समुद्दिस्स बहवे समण- माहण - अतिहि- किवण-वणीमए पगणिय - पगणिय समुद्दिस्स पाणाई भूयाइं जीवाई सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसट्टं अभिहडं आहट्टु चेएइ । तहप्पगारे उवस्सए पुरिसंतरकडे वा अपुरिसंतरकडे वा, अत्तट्ठिए अणत्तट्ठिए वा, परिभुत्ते वा अपरिभुत्ते वा, आसेविए वा सेवि वाणो ठाणं वा, सेज्जं वा, णिसीहियं वा चेतेज्जा ॥ (आचूला २/३, ४, ७) .....' स्थानं' कायोत्सर्गः 'शय्या' संस्तारकः 'निषीधिका' स्वाध्यायभूमिः''''' । (आचूला २/१ की वृ)
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org