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आगम विषय कोश- २
२१. यथारानिक क्रम से शय्याग्रहण २२. संस्तारक-फलक-ग्रहण क्यों ? २३. वृद्धावास आदि के योग्य शय्या संस्तारक २४. प्रातिहारिक संस्तारक- प्रत्यर्पणविधि
१. शय्या के नौ प्रकार
कालातिक्कंतोवट्ठाण अभिकंत अणभिकंता य। वज्जा य महावज्जा, सावज्ज महऽप्यकिरिया य ॥ (बृभा ५९३)
शय्या के नौ प्रकार हैं- कालातिक्रांता, उपस्थाना, अभिक्रांता, अनभिक्रांता, वर्ज्या, महावर्ज्या, सावद्या, महासावद्या, अल्पक्रिया । • कालातिक्रांता और उपस्थाना शय्या
से आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा जे भयंतारो उडुबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवातिणावित्ता तत्थेव भुज्जो संवसंति, अयमाउसो ! कालाइक्कंत-किरिया वि भवइ ॥
.....उडुबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवातिणावित्ता तं दुगुणा तिगुणेण अपरिहरित्ता तत्थेव भुज्जो संवसंति, अयमाउसो ! उवट्ठाणकिरिया वि भवइ ॥
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शीतोष्णकालयोर्मासकल्पम् वर्षासु वा चतुरो मासानतिवाह्य तत्रैव पुनः कारणमन्तरेणासते कालातिक्रमदोषः स्त्र्यादिप्रतिबन्धः स्नेहादुद्गमादिदोषसम्भवो वेत्यत★ स्तथा स्थानं न कल्पते । ये 'भगवन्तः ' साधव आगंतागारादिषु ऋतुबद्धं वर्षां वाऽतिवाह्यान्यत्र मासमेकं स्थित्वा 'द्विगुण - त्रिगुणादिना द्वित्रैर्मासैर्व्यवधानमकृत्वा पुनस्तत्रैव वसन्ति, अयमेवंभूतः प्रतिश्रय उपस्थानक्रियादोषदुष्टो भवति । (आचूला २/३४, ३५ वृ) उउ - वासा समतीता, कालातीया उ सा भवे सेज्जा । सच्चेव उवट्ठाणा, दुगुणा दुगुणं अवज्जेत्ता ॥
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.....ऋतुबद्धे काले द्वौ मासौ वर्षास्वष्टमासान् अपरिहृत्य यदि पुनरागच्छति तस्यां सा उपस्थाना भवति । उपसामीप्येन स्थानम् – अवस्थानं यस्यां । अन्ये पुनरिदमाचक्षते - यस्यां वसतौ वर्षावासंस्थितास्तस्यां द्वौ वर्षारात्रावन्यत्र कृत्वा यदि समागच्छन्ति ततः सा उपस्थाना न भवति अर्वाक् तिष्ठतां पुनरुपस्थाना। (बृभा ५९५ वृ)
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शय्या
• कालातिक्रांता शय्या - साधुओं ने जिन यात्रीगृहों, आरामगृहों, गृहपतिगृहों या मठों में ऋतुबद्धकल्प - शीतकालीन और ग्रीष्मकालीन मासकल्प या वर्षावासकल्प - चातुर्मास बिताया है, उन्हीं स्थानों में वे बिना कारण पुनः रहते हैं, आयुष्मन् ! वह शय्या कालातिक्रांतक्रिया है । उस शय्या में रहना कल्पनीय नहीं है, क्योंकि वहां रहने से स्त्री आदि के प्रति प्रतिबद्धता तथा रागभाव के कारण गृहस्थ द्वारा उद्गम आदि दोषों की संभावना रहती है।
० उपस्थाना शय्या-आचारचूला के अनुसार जिन स्थानों में ऋतुबद्ध कल्प (मासकल्प) या वर्षाकल्प बिताया है, उससे दुगुना-तिगुना काल- दो या तीन मास और दो या तीन चातुर्मास अन्यत्र बिताये बिना पुनः उन्हीं स्थानों में आकर रहते हैं, वे स्थान उपस्थानक्रियादोष से युक्त हैं, आयुष्मन् ! यह उपस्थानक्रिया है ।
बृहत्कल्पभाष्य और उसकी वृत्ति में 'दुगुणा दुगुणं' पाठ है, जिसके अनुसार ऋतुबद्धकाल में दो मास और वर्षाकाल में आठ मास (दो वर्षावास) अन्यत्र बिताये बिना पुनः उस शय्या में रहता है तो वह उपस्थाना शय्या है।
जिसमें उप-समीपता से स्थान अवस्थान होता है (कालक्षेप नहीं होता), वह उपस्थाना है - यह उपस्थाना का निर्वचन है।
बिताया है, उसमें दो वर्षावास अन्यत्र बिताकर यदि पुनः आते हैं कुछ आचार्य यह कहते हैं कि जिस वसति में वर्षावास
तो वह वसति उपस्थाना नहीं होती, उससे पहले आकर रहने वालों के लिए वह उपस्थाना शय्या है।
(दुगुणेण अपरिहरित्ता ण वट्टति, बितियं ततियं च परिहरिऊण चउत्थे होज्जा ।
- दचूला २/११ की अचू
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जहां मासकल्प या चातुर्मासकल्प किया है, दूसरा और तीसरा मास या चातुर्मास छोड़कर चौथा मासकल्प या चातुर्मास वहां किया जा सकता है।
'दुगुणा दुगुणेन' तथा 'दुगुणा तिगुणेण' इनके आधार पर दो वाचनाओं की संभावना की जा सकती है। प्रथम वाचना के अनुसार दो मास या चातुर्मास का वर्जन तथा दूसरी वाचना के अनुसार दो या तीन मास अथवा चातुर्मास का वर्जन किए बिना वहां रहना उपस्थानक्रिया है ।
'दुगुणा दुगुणेन' पाठ की अपेक्षा 'दुगुणा तिगुणेण' यह पाठ सूत्र - वाचना की दृष्टि से अधिक सार्थक लगता है। दो या तीन - इस
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