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आगम विषय कोश-२
५४३
व्यवहार
इस प्रकार श्रुत, सुख-दुःख, क्षेत्र, मार्ग और विनयोप- जड़या णेणं चत्तं, अप्पणतो नाण-दंसण-चरितं । सम्पद्-इस पंचविध आभवद् व्यवहार का जिनाज्ञा के अनुसार ताधे तस्स परेसुं, अणुकंपा नत्थि जीवेसु॥ यथास्थान प्रयोग करने वाला निश्चितरूप से आराधकपद प्राप्त . भवसतसहस्सलद्धं, जिणवयणं भावतो जहंतस्स। करता है, तविपरीत व्यवहारप्रयोक्ता आराधक नहीं होता। जस्स न जातं दुक्खं, न तस्स दुक्खं परे दुहिते। १९. गीतार्थ व्यवहर्त्तव्य, गीतार्थ के साथ व्यवहार
तित्थगरे भगवंते, जगजीववियाणए तिलोगगुरू। अग्गीतेणं सद्धिं, ववहरियव्वं न चेव पुरिसेणं। जो उ करेति पमाणं, सो उ पमाणं सुतधराणं॥ जम्हा सो ववहारे, कयम्मि सम्मं न सद्दहति॥
(व्यभा १६७०-१६७३, १६७६) दुविहम्मि वि ववहारे, गीतत्थो पट्टविज्जती जंतु। व्यवहार्य परिषद् के दोनों पक्ष मध्यस्थ होते हैं, राग-द्वेष तं सम्मं पडिवजति, गीतत्थम्मी गुणा चेव॥ रहित होते हैं, तो निर्णय सुखपूर्वक होता है। सच्चित्तादुप्पण्णे, गीतत्थासति दुवेण्ह गीताणं। जो चरण-करण अनुपालन में शिथिल होता है, उसके एगतरे उ निउत्ते, सम्मं ववहारसद्दहणा॥ लिए सत्य व्यवहार दुःश्रद्धेय होता है । वह चरण-करण छोड़ता गीतो यऽणाइयंतो, छिंद तुमं चेव छंदितो संतो। हुआ सत्य-व्यवहारकारिता को भी छोड़ देता है। कहमंतरं ठावेति, तित्थगराणंतरं संघं॥ जो अपने ज्ञान-दर्शन-चारित्र को त्याग देता है, उसमें
(व्यभा २७-३०) अन्य जीवों के प्रति अनुकम्पा का भाव नहीं रहता। जो लाखों अगीतार्थ पुरुष व्यवहर्त्तव्य नहीं होता, क्योंकि वह यथोचित जन्मों के पश्चात् प्राप्त जिनप्रवचन को छोड़ता हुआ दुःखी नहीं व्यवहार करने पर भी उसमें सम्यक श्रद्धा नहीं करता।
होता, वह दूसरों के दुःख में भी दुःखी नहीं होता। __ प्रायश्चित्त व्यवहार और आभवत् व्यवहार-दोनों प्रकार के तीर्थंकर भगवान् जगत् की जीवयोनियों के ज्ञाता तथा तीन व्यवहार में गीतार्थ को ही प्रज्ञप्ति दी जाती है। क्योंकि वह सम्यक् लोक के नाथ होते हैं। जो उनको, उनके वचनों को प्रमाण मानता रूप में स्वीकार करता है। गीतार्थ में गुण ही होते हैं।
है, वही श्रुतधरों के लिए प्रमाणभूत होता है। दो गीतार्थ साथ-साथ विहार कर रहे थे। उन्हें सचित्त पंचविधं उवसंपय, नाऊणं खेत्तकालपव्वजं । (शिष्य), वस्त्र आदि की प्राप्ति हुई। तब दोनों में विवाद हो तो संघमज्झयारे, ववहरियव्वं अणिस्साए॥ गया-एक कहता है-यह मेरा है और दूसरा कहता है-यह मेरा
(व्यभा १६९२) है। अन्य गीतार्थ समीप में नहीं था, अतः दोनों गीतार्थों में से एक ___जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वैयावृत्त्य-इस पंचविध कहता है-'तुम ही मेरे लिए प्रमाण हो, तुम्हीं इस विवाद को उपसंपदा को जानता है. क्षेत्र. काल और प्रव्रज्या को जानता है. निपटाओ-इस प्रकार निमंत्रित करने पर नियुक्त गीतार्थ सोचता। उसे राग और द्वेष से मुक्त होकर व्यवहार करना चाहिए। है-इसने मुझे प्रमाण मानकर तीर्थंकर की अविच्छिन्न संघपरंपरा २१. संव्यवहारी आराधक : आठ व्यवहारी शिष्य में स्थापित किया है। मैं संघ को तीर्थंकर से अंतरित (विच्छिन्न) ..."आगमबलिया समणा निग्गंथा इच्चेयं पंचविहं कैसे स्थापित कर सकता हूं? यह सोचकर उसने कहा-'मुनिवर्य! ववहारं जया-जया जहिं-जहिं तया-तया तहिं-तहिं यह वस्तु तुम्हारी ही है, मेरी नहीं।'
अणिस्सिओवस्सियं ववहारं ववहरेमाणे समणे निग्गंथे २०. सम्यग् निर्णय में मध्यस्थता अनिवार्य
आणाए आराहए भवइ ॥
(व्य १०/६) परिसा ववहारी या, मज्झत्था रागदोसनीहूया। श्रमण-निर्ग्रन्थ आगमबली होते हैं। आगम, श्रुत, आज्ञा, जइ होंति दो वि पक्खा , ववहरिउं तो सुहं होति॥ धारणा और जीत-इन पांचों व्यवहारों में जब-जब जहां-जहां जो ओसन्नचरणकरणे, सच्चव्ववहारया दुसहहिया। व्यवहार हो, तब-तब वहां-वहां उसका मध्यस्थ भाव से सम्यग चरणकरणं जहंतो, सच्चव्ववहारयं पि जहे॥ व्यवहार करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ आज्ञा का आराधक होता है।
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