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आगम विषय कोश - २
एक परम्परा के अनुसार तीसरे पुरुषयुग (जम्बूस्वामी) के सिद्ध होने पर अंतिम तीन चारित्रों का विच्छेद हो गया, तब जीत से व्यवहार होने लगा।
दूसरी परम्परा के अनुसार चतुर्दशपूर्वी का विच्छेद होने पर प्रथम संहनन, प्रथम संस्थान, अन्तर्मुहूर्त्त में चौदह पूर्वों का परावर्त्तन तथा प्रथम चारों व्यवहारों का विच्छेद हो गया।
इन दोनों मतों का निराकरण करते हुए भाष्यकार कहते हैं - जो चतुर्दशपूर्वधर के विच्छेद होने पर व्यवहार - चतुष्क के विच्छेद की घोषणा करते हैं, वे मिथ्यावादी होने के कारण चतुर्गुरु प्रायश्चित्त के भागी हैं ।
आचार्य जम्बूस्वामी के सिद्धिगमन के पश्चात् बारह वस्तुओं का विच्छेद हुआ - मनः पर्यवज्ञान, परमावधि, लब्धिपुलाक, आहारकलब्धि, क्षपक श्रेणि, उपशमश्रेणि, जिनकल्प, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय, यथाख्यात चारित्र, केवली, सिद्धि ।
चतुर्दशपूर्वी के विच्छिन्न होने पर प्रथम संहनन (वज्रऋषभनाराच), प्रथम संस्थान (समचतुरस्र) तथा अन्तर्मुहूर्त्त में चौदहपूर्वी का उपयोग (अनुप्रेक्षण) - इन तीनों वस्तुओं का विच्छेद हुआ। जो आगमे य सुत्ते, य सुन्नतो आणधारणाए य । सो ववहारं जीएण, कुणति वत्ताणुवत्तेण ॥
(व्यभा ४५३३) जो आगम, श्रुत, आज्ञा और धारणा से रहित होता है, वह परम्परा से प्राप्त जीत के द्वारा व्यवहार करता है।
१७. जीत व्यवहार कब तक ?
यस्मिन् काले गौतमादिभिरिदं सूत्रं कृतं 'ववहारे पंचविहे पन्नत्ते' इत्यादि तदा आगमो विद्यते ततः किं कारणमाज्ञादयोऽपि सूत्रे निबद्धा: ? । (व्यभा ३८८४ की वृ)
सुत्तमणागयविसयं, खेत्तं कालं च पप्प ववहारो । होहिंति न आइल्ला, जा तित्थं ताव जीतो तु ॥
.....यस्मिन् यस्मिन् काले यो यो व्यवहारो व्यवच्छिन्नो अव्यवच्छिन्नो वा तदा तदा प्रागुक्तेन क्रमेण व्यवहर्त्तव्यं तथा यत्र यत्र क्षेत्रे युगप्रधानैराचार्यैर्या या व्यवस्था व्यवस्थापिता तया अनिश्रितोपाश्रितं व्यवहर्त्तव्यम् । (व्यभा ३८८५ वृ)
शिष्य ने पूछा- जिस समय गौतमस्वामी आदि ने 'ववहारे
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पंचविहे पण्णत्ते....... इस सूत्र की रचना की, उस समय आगम था, तब श्रुत, आज्ञा आदि को सूत्रित क्यों किया ? गुरु ने कहासूत्र का विषय अनागत काल भी है- भविष्य में ऐसा समय भी आयेगा, जब आगम का व्युच्छेद हो जाएगा। व्यवहार क्षेत्र और काल सापेक्ष होता है। जिस काल में जो व्यवहार व्युच्छिन्न हो तो उस समय अव्युच्छिन्न व्यवहार का यथाक्रम प्रयोग करना चाहिए। जिस क्षेत्र में युगप्रधान आचार्यों द्वारा जो व्यवस्था व्यवस्थापित हो, उसी के अनुसार मध्यस्थ भाव से व्यवहार करना चाहिए।
व्यवहार
प्रथम चार व्यवहार तीर्थपर्यंत नहीं रहेंगे। अंतिम 'जीत' व्यवहार तब तक रहेगा, जब तक तीर्थ रहेगा । १८. व्यवहार के भेद : आभवद् और प्रायश्चित्त आभवंते य पच्छित्ते, ववहरियव्वं समासतो दुविहं । दो वि पणगं पणगं ********** II खेत्ते सुत-सुहदुक्खे, मग्गे विणए य पंचहा होइ । सच्चित्ते अच्चित्ते, खेत्ते काले य भावे य ॥ (व्यभा ३८८९, ३८९०)
व्यवहार के दो प्रकार हैं
—
१. आभवत् व्यवहार - शिष्य आदि को लेकर होने वाला। २. प्रायश्चित्त व्यवहार — अपराधी के प्रति होने वाला।
आभवत् व्यवहार पांच प्रकार का है - १. क्षेत्र २. श्रुत ३. सुख-दुःख, ४ मार्ग और ५. विनय संबंधी ।
प्रायश्चित्त व्यवहार पांच प्रकार का है - सचित्त, अचित्त, क्षेत्र, काल और भाव संबंधी । (द्र प्रायश्चित्त) ० क्षेत्र आभवद्-श्रुत आभवद् व्यवहार
वासासु निग्गताणं, अट्ठसु मासेसु मग्गणा खेत्ते । आयरियकहण साहण, नयणे गुरुगा य सच्चित्ते ॥ आलोएंतो सोउं ।गताण तेसिं न तं खेत्तं ॥ दुविहा सुतोवसंपय, अभिधारेंते तहा पढ़ते य । एक्केक्का वि य दुविधा, अनंतर परंपरा चेव ॥ एत्थं सुयं अहीहामि, सुतवं सो वि अन्नहिं । वच्चंतो सोऽभिधारंतो, सो वि अन्नत्थमेव व ॥ दोहं अनंतरा होति, तिगमादी परंपरा । ...... (व्यभा ३८९१, ३८९३, ३९५८-३९६०)
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