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आगम विषय कोश - २
वत्तो णामं एक्कसि, अणुवत्तो जो पुणो बितियवारे । ततियव्वार पवत्तो, परिग्गहीओ महाणेणं ॥ अग अगस्थ कतो, जह अमुयस्स अमुएण ववहारो । अमुगस्स विय तह कतो, अमुगो अमुगेण ववहारो ॥ तं चेवऽणुमज्जंते, ववहारविधिं पउंजति जहुत्तं । जीतेण एस भणितो, ववहारो धीरपुरिसेहिं ॥ (व्यभा ४५२१, ४५२२, ४५३४, ४५३५) • जो व्यवहार एक बार, दो बार या अनेक बार प्रवृत्त होता है, महाजन (आचार्य आदि) के द्वारा अनुवर्तित होता है, वह जीतकल्प नामक पांचवां व्यवहार है
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• अमुक आचार्य ने अमुक कारण उत्पन्न होने पर अमुक पुरुष को अमुक प्रायश्चित्त दिया, वैसा ही प्रयोग वैसी स्थिति में अन्य आचार्यों ने किया—इस वृत्तानुवृत्त जीत का आश्रय लेकर यथोक्त व्यवहार विधि का प्रयोग करना जीत व्यवहार है। ...... आयरियपरंपरएण आगतो जाव जस्स भवे ॥ बहुसो बहुस्सुतेहिं, जो वत्तो न य निवारितो होति । वत्तऽणुवत्तपमाणं, जीतेण कयं भवति एयं ॥ (व्यभा ४५४९, ४५४२)
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जो आचार्य परम्परा से प्राप्त व्यवहार है, वह जीत व्यवहार है । • जो व्यवहार बहुश्रुतों के द्वारा अनेक बार प्रवर्तित हुआ और किसी अन्य बहुश्रुत के द्वारा जिसका प्रतिषेध नहीं किया गया, वह वृत्तानुवृत्त व्यवहार प्रमाणीकृत जीत व्यवहार है।
असढेण समाइण्णं, जं कत्थइ कारणे असावज्जं । ण णिवारियमण्णेहिं य, बहुमणुमयमेतमाइणं ॥ (बृभा ४४९९)
कहीं भी प्रयोजन उपस्थित होने पर प्रमाणस्थ पुरुष द्वारा अशठभाव से जो निरवद्य आचरण किया जाता है, गीतार्थवर्ग के द्वारा जिसका निवारण नहीं किया जाता अपितु उसके द्वारा जो सम्मत अनुमत होता है, वह आचीर्ण है, जीतकल्प है। • जीत व्यवहार : श्रुत-उपधान के संदर्भ में
जं जस्स व पच्छित्तं, आयरियपरंपराएँ अविरुद्धं । जोगा य बहुविकप्पा, एसो खलु जीयकप्पो उ॥
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व्यवहार
नागिलकुलवंशवर्तिनां साधूनामाचारादारभ्य यावदनुत्तरोपपातिकदशाः, तावन्नास्ति आचाम्लं, केवलं निर्विकृतिन ते पठन्ति आचार्यानुज्ञाताश्च विधिना कायोत्सर्गं कृत्वा विकृती: परिभुञ्जते तथा कल्पव्यवहारयोः चन्द्रप्रज्ञप्तिसूर्यप्रज्ञप्त्योश्च केचिदागाढं योगं प्रतिपन्ना अपरे त्वनागाढमिति । (व्यभा १२ वृ)
जिस आचार्य के गच्छ में पूर्व आचार्यपरम्परा के अविरुद्ध जो प्रायश्चित्त का विधान है और गच्छभेद के आधार पर योग ( श्रुत अध्ययन संबंधी उपधान) के जो अनेक विकल्प हैं, वह जीतकल्प - जीतव्यवहार है।
नागिलकुलवंशी साधुओं के लिए आचारांग से लेकर अनुत्तरोपपातिकदशा पर्यंत सूत्रों को पढ़ते समय आचाम्ल का विधान नहीं है। वे केवल निर्विकृतिक रहकर उन सूत्रों को पढ़ते हैं और आचार्य की अनुज्ञा से विधिपूर्वक कायोत्सर्ग कर विकृति का सेवन करते हैं। कल्प - व्यवहार सूत्र और चन्द्रप्रज्ञप्ति - सूर्यप्रज्ञप्ति के पठनकाल में कुछ आगाढ योग को स्वीकार करते हैं और कुछ अनागाढ योग को - यह जीतकल्प है।
१४. जीत व्यवहार के आधार पर प्रायश्चित्त
सो जह कालादीणं, अपडिक्कंतस्स निव्विगइयं तु । मुहणंत फिडिय पाणगऽसंवरणे एवमादीसु ॥ '''''पानाहारप्रत्याख्यानाकरणे । ( व्यभा ४५३७ वृ) स्वाध्यायकाल आदि का प्रतिक्रमण नहीं करने पर, मुखवस्त्र के बिना रहने अथवा बोलने पर, पानकपात्र नहीं ढकने पर, पानाहारप्रत्याख्यान नहीं करने पर तथा इसी प्रकार की स्खलना होने पर निर्विकृतिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
एगिंदिऽणंत वज्जे, घट्टण तावेऽणगाढ गाढे य । निव्विगितयमादीयं, जा आयामं तु उद्दवणे ॥ विगलिंदणंत घट्टण, तावऽणगाढे य गाढ उद्दवणे । पुरिमड्डादिकमेणं, नातव्वं जाव खमणं तु ॥ पंचिंदि घट्ट - तावणऽणगाढ गाढे तधेव उद्दवणे । एक्कासण- आयामं, खमणं तह पंचकल्लाणं ॥ एमादीओ एसो, नातव्वो होति जीतववहारो ।...... (व्यभा ४५३८-४५४१ )
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