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व्यवहार
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आगम विषय कोश-२
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स्वयं वहां आ जाते हैं अथवा उस कार्य के योग्य गीतार्थ शिष्य को विविहेहि पगारेहिं, धारेयऽत्थं विधारो उ॥ प्रज्ञापित कर भेजते हैं, वह न हो तो उसी आगंतक को गढार्थ वाले सं एगीभावम्मी, धीय धरणे ताणि एक्कभावेणं। पदों में अतिचार-विशुद्धि बताते हैं। यह आज्ञा व्यवहार है। धारेयऽत्थपयाणि तु, तम्हा संधारणा होति॥ * गूढ पदों में प्रायश्चित्त
द्र प्रतिसेवना जम्हा संपहारेउं, ववहारं पउंजती। १२. धारणा व्यवहार का स्वरूप
तम्हा कारणा तेण, नातव्या संपधारणा॥ पुरिसस्स उ अइयारं, विधारइत्ताण जस्स जं अरिहं।
(व्यभा ४५०३-४५०६) तं देंति उ पच्छित्तं, जेणं देंती उ तं सणह॥
धारणा की क्रमिक अवस्थाओं के द्योतक चार पद हैंजो धारितो सुतत्थो, अणुयोगविधीय धीरपुरिसेहिं । १. उद्धारणा-छेदसूत्रों में उद्धत अर्थपदों को प्रबलता से धारण आलीणपलीणेहिं, जतणाजुत्तेहिं दंतेहिं ॥ करना। अहवा जेणऽण्णइया, दिट्ठा सोधी परस्स कीरंति। २. विधारणा-अर्थपदों को विविध प्रकार से धारण करना। तारिसयं चेव पुणो, उप्पन्न कारणं तस्स॥ ३. संधारणा-धारण किए हए अर्थपदों को आत्मसात् करना। सो तम्मि चेव दव्वे, खेत्ते काले य कारणे पुरिसे। ४. सम्प्रधारणा-अर्थपदों को सम्यक्तया प्रकर्ष रूप से धारण कर तारिसयं चिय भूतो, कुव्वं आराहगो होति॥ धारणाव्यवहार का प्रयोग करना।। वेयावच्चकरो वा, सीसो वा देसहिंडगो वावि।
पवयणजसंसि पुरिसे, अणुग्गहविसारए तवस्सिम्मि। दुम्मेहत्ता न तरति, अवधारेउं बहुं जो तु॥
सुस्सुयबहुस्सुयम्मि य, वि वक्कपरियागसुद्धम्मि॥ तस्स उ उद्धरिऊणं, अत्थपयाइं तु देंति आयरिया।
एतेसु धीरपुरिसा, पुरिसज्जातेसु किंचि खलितेसु। जेहिं करेति कजं, आधारेंतो तु सो देसो॥ रहिते वि धारडत्ता. जहारिहं देंति पच्छित्तं॥
(व्यभा ४५११, ४५१२, ४५१५, ४५१७-४५१९) । रहिते नाम असंते, आइल्लम्मि ववहारतियगम्मि। ० ज्ञान आदि में सतत आलीन-प्रलीन, उपशांत, यतनायुक्त और ताहे वि धारइत्ता, वीसंसेऊण जं भणियं॥ दांत-ऐसे मुनि व्याख्याकाल में जो सूत्रार्थ धारण करते हैं, उसकी
(व्यभा ४५०८-४५१०) स्मृति रखते हुए उसके आधार पर अपराधी के अपराध का विचार धारणा व्यवहर्त्तव्य की पांच अर्हताएं हैंकर यथायोग्य प्रायश्चित्त देते हैं-वह धारणा व्यवहार है। प्रवचनयशस्वी-जो प्रवचन का यश चाहता है। ० किसी ने कभी किसी की शोधि करते देखा, वह सारा स्मृति में ० अनुग्रहविशारद-जो प्रदत्त प्रायश्चित्त को अनुग्रह मानता है। है। पुनः वैसा कारण उत्पन्न होने पर वैसे ही द्रव्य, क्षेत्र, काल और तपस्वी-जो विविध तपों में रत है। भाव में वैसे पुरुष को वैसा ही प्रायश्चित्त देना धारणा व्यवहार है। ० सुश्रुतबहुश्रुत-जिसका अच्छी तरह से सुना हुआ विशालश्रुत राग-द्वेष मुक्त होकर वैसा व्यवहार करने वाला आराधक होता है। भी विस्मृत नहीं होता। ० जो मुनि वैयावृत्त्यकर है या सम्मत शिष्य है या जो देशदर्शन में ० वाक्यपरिपाकशुद्ध-जो वचनपरिणाम से शुद्ध है। आचार्य का सहयोगी है, वह दुर्मेधा या अल्पमेधा के कारण उपर्युक्त गुणों से युक्त मुनि को आचार में स्खलना होने पर छेदसूत्रों के सम्पूर्ण अर्थपदों को धारण करने में समर्थ नहीं है। प्रथम तीन व्यवहारों (आगम, श्रुत, आज्ञा) के अभाव में कल्प, आचार्य उस पर अनुग्रह कर कुछ उद्धृत अर्थपद उसे सिखाते हैं। निशीथ और व्यवहार-तीनों के कुछ अर्थपदों की अवधारणा कर छेदसूत्र के अर्थ का अंशतः धारक वह मुनि जो प्रायश्चित्त देता है, विमर्शपूर्वक यथायोग्य प्रायश्चित्त दिया जाता है। वह धारणा व्यवहार है।
१३. जीत व्यवहार का स्वरूप उद्धारणा विधारण, संधारण संपधारणा चेव।... वत्तणवत्तपवत्तो. बहसो अणवत्तिओ महाणे। पाबल्लेण उवेच्च व, उद्धियपयधारणा उ उद्धारा। एसो उ जीयकप्पो, पंचमओ होति ववहारो॥
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