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व्यवहार
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आगम विषय कोश-२
मुक्त होकर अर्हतों की आज्ञा से व्यवहार का प्रयोग करते हैं, वे अपरक्कमो मि जातो, गंतुं जे कारणं तु उप्पण्णं। आगम व्यवहारी हैं।
अट्ठारसमन्नतरे, वसणगते इच्छिमो आणं॥ १०. श्रुतव्यवहारी का स्वरूप
अपरक्कमो तवस्सी, गंतुं सो सोधिकारगसमीवं । जो सुतमहिज्जति बहुं, सुत्तत्थं च निउणं वियाणाति। आगंतु न चाएती, सो सोहिकरो वि देसातो॥ कप्पे ववहारम्मि य, सो उ पमाणं सतधराणं॥ अध पट्ठवेति सीसं, देसंतरगमणनट्ठचेट्ठागो। कप्पस्स य निज्जुत्तिं, ववहारस्सेव परमनिउणस्स। इच्छामऽज्जो काउं, सोहिं तुब्भं सगासम्मि॥ जो अस्थतो विजाणति, ववहारी सो अणुण्णातो॥ सो वि अपरक्कमगती, सीसं पेसेति धारणाकुसलं।
(व्यभा ४४३३, ४४३५) एयस्स दाणि पुरतो, करेति सोहिं जहावत्तं॥ श्रुतव्यवहारिणोऽवशेषपूर्वधरा एकादशांगधारिकल्प- अपरक्कमो य सीसं, आणापरिणामगं परिच्छेज्जा। व्यवहारादिसूत्रार्थतदुभयविदश्च। (व्यभा ९ की वृ) रुक्खे य बीजकाए, सुत्ते वाऽमोहणाधारिं ॥ जो मुनि कल्प और व्यवहार के सूत्रों को बहुत पढ़ चुका
पदमक्खरमुद्देसं, संधी-सुत्तत्थ-तदुभयं चेव। है, सूत्रार्थ को सूक्ष्मता से जानता है तथा अत्यंत सूक्ष्म अर्थों वाले
अक्खरवंजणसुद्धं, जह भणितं सो परिकहेति॥ कल्प और व्यवहार की नियुक्तियों को अर्थतः जानता है, वही
एवं परिच्छिऊणं, जोग्गं णाऊण पेसवे तं तु। श्रुतधरों में प्रमाणभूत श्रुतव्यवहारी हो सकता है। एकपूर्वी यावत्
वच्चाहि तस्सगासं, सोहिं सोऊणमागच्छ॥
अध सो गतो उ तहियं, तस्स सगासम्मि सो करे सोधिं। आठपूर्वी, ग्यारह अंगों के धारक, कल्प, व्यवहार आदि के सूत्र,
दुग-तिग-चऊविसुद्धं, तिविधे काले विगडभावो॥ अर्थ और सूत्रार्थ के ज्ञाता श्रुतव्यवहारी कहलाते हैं।
दुविहं तु दप्प-कप्पे, तिविहं नाणादिणं तु अट्ठाए। ० श्रुतव्यवहार : भद्रबाहु द्वारा निर्मूढ श्रुत
दव्वे खेत्ते काले, भावे य चउव्विधं एयं ॥ निज्जूढं चोद्दसपुव्विएण जं भद्दबाहुणा सुत्तं। सोऊण तस्स पडिसेवणं तु आलोयणं कमविधिं व। पंचविधो. ववहारो, दुवालसंगस्स णवणीतं । आगमपुरिसज्जातं, परियागबलं च खेत्तं च॥ तं चेवऽणुमज्जंते, ववहारविधिं पउंजति जहुत्तं । आहारेउं सव्वं, सो गंतूणं पुणो गुरुसगासं। एसो सुतववहारी, पण्णत्तो धीरपुरिसेहिं॥ तेसि निवेदेति तधा, जधाणुपुव्विं गतं सव्वं ॥ ___कुलादिकार्येषु व्यवहारे उपस्थिते "भद्रबाहुस्वामिना सो ववहारविहिण्णू, अणुमज्जित्ता सुतोवदेसेणं। कल्पव्यवहारात्मकं सूत्रं निर्मूढम्। (व्यभा ४४३१, ४४३६ वृ) सीसस्स देति आणं, तस्स इमं देहि पच्छित्तं ॥
एवं गंतूण तहिं, जधोवदेसेण देति पच्छित्तं। चौदहपूर्वी भद्रबाहु स्वामी ने द्वादशांग से पंचविध व्यवहार
आणाय एस भणितो, ववहारो धीरपुरिसेहिं॥ का नि!हण किया, जो द्वादशांग का नवनीत/सार है। वह सूत्र ही
(व्यभा ४४३८-४४४३, ४४५४-४४५७,४४८७-४४८९, ४५०१) श्रुत है और उससे होने वाला व्यवहार श्रुतव्यवहार है।
अनशन में संलग्न, शल्योद्धरण का इच्छुक तपस्वी मुनि या कुल, गण आदि में व्यवहार का प्रसंग उपस्थित होने पर आचार्य भद्रबाहु ने कल्प और व्यवहारसूत्र का नि!हण किया। जो
आचार्य दूरस्थित छत्तीस गुणों से युक्त आचार्य के पास आलोचना इन दोनों सूत्रों में निमज्जन कर, यथोक्त व्यवहारविधि का प्रयोग
करना चाहता है किन्तु शोधिकारक के समीप जाने में समर्थ नहीं है
और शोधिकारक भी देशांतर से आने में समर्थ नहीं है, तो शोधि करता है, उसे धीर पुरुषों ने श्रुतव्यवहारी कहा है।
का इच्छुक आचार्य अपने शिष्य को वहां भेजकर यह कहलवाता ११. आज्ञा व्यवहार का स्वरूप : शिष्य की परीक्षा है-'आर्य! मैं व्रतषट्क आदि अठारह स्थानों में से किसी भी
समणस्स उत्तिमढे, सल्लुद्धरणकरणे अभिमुहस्स। स्थान के अतिचार की शोधि के लिए आपकी आज्ञा चाहता हूं, दूरत्था जत्थ भवे, छत्तीसगुणा उ आयरिया॥ आपके पास शोधि करना चाहता हूं।' शिष्य वहां जाता है, आचार्य
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