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आगम विषय कोश-२
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व्यवहार
प्रदेशाः प्रतिभागा भेदा इत्यर्थः। ये श्रुतधराः.... नवपूर्विणो वा गन्धहस्तिनो गन्धहस्तिसमानाः ते आगमत: परोक्षं व्यवहारं व्यवहरन्ति। (व्यभा ४०३२-४०३९ वृ) ० प्रत्यक्ष आगम व्यवहारी-जो श्रतांगविद धीर मनि गणप्रत्ययिक अवधिज्ञानी होते हैं, वे अवधिज्ञान से तथा जो मुनि ऋजुमति या विपुलमति मन:पर्यवज्ञानी होते हैं, वे मन:पर्यवज्ञान से व्यवहारशोधिकारक होते हैं।
जो धर्म के आदिकर हैं, उत्तम ज्ञान-दर्शन-चारित्र से सम्पन्न हैं, वे जिन केवलज्ञान से व्यवहार करते हैं। ० परोक्ष आगम व्यवहारी-जैसे चन्द्रसदृश मुख वाली कन्या चन्द्रमखी कहलाती है, वैसे ही जिनका परोक्ष आगम प्रत्यक्ष आगम के सदृश होता है, वे आगमव्यवहारी कहलाते हैं।
ज्ञान और आगम एकार्थक हैं। जिसका आगम परायत्त है, वह परोक्ष है। चौदहपूर्वी, दसपूर्वी और गन्धहस्ती के समान नवपूर्वी-ये श्रुतधर परोक्ष आगम के प्रतिभाग हैं और आगमतः परोक्ष व्यवहार का प्रयोग करते हैं।
शिष्य ने पूछा-साक्षात् श्रुत से व्यवहार करने वाले आगम व्यवहारी कैसे? आचार्य ने कहा-चतर्दशपूर्वी आदि श्रुतधर मनि जीव आदि पदार्थों को सर्वनयविकल्पों से जानते हैं। जैसे केवलज्ञानी सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों को सर्वात्मना जानते हैं, वैसे ही श्रुतज्ञानी भी श्रुतबल से इन चारों लक्षणों को जान लेते हैं। ८. प्रत्यक्ष-परोक्षज्ञानी : प्रायश्चित्तदान में समानता पणगं मासविवड्डी, मासिगहाणी य पणगहाणी य। एगाहे - पंचाहं, पंचाहे चेव एगाहं॥ रागहोसविवढेि, हाणिं वा णाउ देंति पच्चक्खी। चोद्दसपुव्वादी वि हु, तह नाउं देंति हीणऽहियं ॥
(व्यभा ४०४०, ४०४१) प्रत्यक्ष आगमव्यवहारी प्रतिसेवक की राग-द्वेष की हानिवृद्धि के आधार पर न्यून या अधिक प्रायश्चित्त देते हैं।
वे पांच दिन जितनी प्रतिसेवना होने पर पांच दिन या मासिक प्रायश्चित्त तथा मासिक जितनी प्रतिसेवना होने पर पच्चीस दिन या पांच दिन का प्रायश्चित्त भी दे सकते हैं।
वे एक उपवास प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना करने वाले
को पांच उपवास तथा पांच उपवास वाले प्रतिसेवक को एक उपवास या नमस्कारसहिता का प्रायश्चित्त भी दे सकते हैं।
इसी प्रकार चतुर्दशपूर्वी आदि भी आलोचक की राग-द्वेष की हानि-वृद्धि के आधार पर न्यूनाधिक प्रायश्चित्त देते हैं । . नालीधमक दृष्टांत पच्चक्खी पच्चक्खं, पासति पडिसेवगस्स सो भावं। किह जाणति पारोक्खी, नातमिणं तत्थ धमएणं ।। नालीधमएण जिणा, उवसंहारं करेंति पारोक्खे। जह सो कालं जाणति, सतेण सोहिं तहा सोउं॥
(व्यभा ४०४६, ४०४७) प्रत्यक्ष आगमव्यवहारी आलोचक के भावों को साक्षात् जानते हैं, किन्तु परोक्ष आगमव्यवहारी कैसे जान लेते हैं ? इसमें नालीधमक का दृष्टांत ज्ञातव्य है-जैसे नालिका से गिरते हुए उदक के परिमाण के आधार पर समय जानकर धमक शंख बजाकर समय की सूचना देता है, वैसे ही परोक्ष आगमव्यवहारी आलोचना को सुनकर आलोचक के यथावस्थित भावों को जान लेते हैं। ९. आगमव्यवहारी का स्वरूप
अट्ठायारवमादी, वयछक्कादी हवंति अटूरसा। दसविधपायच्छित्ते, आलोयण दोसदसहिं वा॥ छहि काएहि वतेहि व, गुणेहि आलोयणाय दसहिं च। छट्ठाणावडितेहिं, छहि चेव तु जे अपारोक्खा॥ संखादीया ठाणा, छहि ठाणेहि पडियाण ठाणाणं। जे संजया सरागा, सेसा एक्कम्मि ठाणम्मि॥ एयागमववहारी, पण्णत्ता रागदोसणीहूया। आणाय जिणिंदाणं, जे ववहारं ववहरंति॥
(व्यभा ४१५९-४१६२) आलोचनाह के आचारवान् आदि आठ गुण, व्रतषट्क आदि अठारह आचारस्थानों संबंधी अपराधों में प्रायश्चित्त, आलोचना आदि दसविध प्रायश्चित्त, आलोचना के दस दोष, छह जीव निकाय, छह व्रत, आलोचना के दस गुण, षट्स्थानपतित (अनंतभाग वृद्धि-हानि आदि) स्थानों में वर्तमान सराग संयतों के असंख्येय संयम स्थान और वीतराग का एक संयमस्थान (अवस्थित चारित्र)जो इन सब स्थानों को साक्षात् जानते हैं और राग-द्वेष की प्रवृत्ति से
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