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व्यवहार
आगम विषय कोश-२
पच्चक्खो वि य दुविहो, इंदियजो चेव नो व इंदियजो। इंदियपच्चक्खो वि य, पंचसु विसएसु नेयव्वो॥ नोइंदियपच्चक्खो, ववहारो सो समासतो तिविहो।
ओहि-मणपज्जवे या, केवलनाणे य पच्चक्खे॥ पारोक्खं ववहारं, आगमतो सुतधरा ववहरंति। चोद्दस-दसपुव्वधरा, नवपुब्वियगंधहत्थी य॥
(व्यभा ४०२९-४०३१, ४०३७) आगम व्यवहार
प्रत्यक्ष
परोक्ष
चौदहपूर्वी दसपूर्वी
नौपूर्वी (गंधहस्ती के समान)
धारणा जीए। जहा से तत्थ आगमे सिया. आगमेणं ववहारं पट्ठवेज्जा। नो से तत्थ आगमे सिया, जहा से तत्थ सुए सिया, सुएणं ववहारं पट्ठवेज्जा। नो से तत्थ सुए सियाआणाए ववहारं पट्टवेज्जा। नो से तत्थ आणा सिया"धारणाए ववहारं पट्ठवेज्जा। नो से तत्थ धारणा सिया""जीएणं ववहारं पट्ठवेज्जा""जहा-जहा से आगमे सुए आणा धारणा जीए तहातहा ववहारे पट्ठवेज्जा।"
(व्य १०/६) आगमववहारी आगमेण ववहरति सो न अन्नेणं। न हि सूरस्स पगासं, दीवपगासो विसेसेति॥
__ (व्यभा ३८८४) व्यवहार के पांच प्रकार हैं-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत। जहां आगम हो, वहां आगम से व्यवहार की प्रस्थापना करे। जहां आगम न हो, श्रुत हो, वहां श्रुत से, जहां श्रुत न हो, वहां आज्ञा से, आज्ञा न हो, वहां धारणा से और धारणा न हो, वहां जीत से व्यवहार की प्रस्थापना करे। जिस समय इन पांचों में से जो प्रधान हो, उसी से व्यवहार का प्रवर्तन करे।
आगमव्यवहारी/आगमपुरुष आगम से व्यवहार का प्रवर्तन करता है, श्रुत आदि से नहीं। क्योंकि श्रुत आगम से हीन है। दीपक का प्रकाश सूर्य के प्रकाश को विशिष्ट नहीं बनाता। • प्रथम चार व्यवहारों के धारक
केवल-मणपज्जवनाणिणो य तत्तो य ओहिनाणजिणा। चोदस-दस-नवपव्वी, आगमववहारिणो धीरा॥ सुत्तेण ववहरंते, कप्पव्ववहारधारिणो धीरा। अत्थधरववहरंते, आणाए धारणाए य॥
(व्यभा ४५२९, ४५३०) ० आगम व्यवहारी-केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानजिन, चौदहपूर्वी, दसपूर्वी, नौपूर्वी। ० श्रुत व्यवहारी-कल्प और व्यवहार सूत्र के ज्ञाता। ० आज्ञा और धारणा व्यवहारी-छेदसूत्र के अर्थधर। ७. आगम-व्यवहार के भेद-प्रभेद
आगमतो ववहारो, सुणह जहा धीरपुरिसपण्णत्तो। पच्चक्खो य परोक्खो, सो वि य दुविहो मुणेयव्वो॥
इन्द्रिय प्रत्यक्ष
नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष पांच इन्द्रियों से होने वाला रूप आदि का ज्ञान
अवधि मनःपर्यव केवलज्ञान प्रत्यक्ष-परोक्ष आगम व्यवहारी ओधीगुण-पच्चइए, जे वटुंते सुयंगवी धीरा। ओहिविसयनाणत्थे, जाणस ववहारसोधिकरे॥ उज्जुमती विउलमती, जे वटुंती सुयंगवी धीरा। मणपज्जवनाणत्थे, जाणसु ववहारसोहिकरे॥ आदिगरा धम्माणं, चरित्तवर-नाण-दंसण-समग्गा। सव्वत्तगनाणेणं, ववहारं ववहरंति जिणा॥ पच्चक्खागमसरिसो, होति परोक्खो वि आगमो जस्स। चंदमुही विव सो वि हु, आगमववहारवं होति॥ नातं आगमियं ति य, एगटुं जस्स सो परायत्तो। सो पारोक्खो वुच्चति, तस्स पदेसा इमे होंति॥ पारोक्खं ववहारं, आगमतो सुतधरा ववहरंति। चोद्दस-दसपुव्वधरा, नवपुव्वियगंधहत्थी य॥ किह आगमववहारी, जम्हा जीवादयो पयस्था उ। उवलद्धा तेहिं तू, सव्वेहिं नयविगप्पेहिं ।। जह केवली वि जाणति, दव्वं खेत्तं च काल-भावं च। तह चउलक्खणमेतं, सुयनाणी वी विजाणाति॥
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