________________
व्यवहार
५३२
आगम विषय कोश-२
करने वाला। वह प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, संवेग (भवविराग) सम्पन्न, थिरपरिवाडीएहिं, संविग्गेहिं अणिस्सियकरेहि। पापभीरु, सूत्रविद्, अर्थविद् और सूत्रार्थविद् होता है।
कज्जेसु जंपियव्वं, अणुयोगियगंधहत्थीहिं॥ प्रियधर्मा, दृढधर्मा, गीतार्थ और संविग्न में विश्वास होता है। एयगुणसंपउत्तो, ववहरती संघमज्झयारम्मि। वह निश्रा-उपश्रा से मुक्त होकर प्रायश्चित्त देता है।
एयगुणविप्पमुक्के, आसायण सुमहती होति॥ निश्रा का अर्थ है-राग और उपश्रा का अर्थ है-द्वेष अथवा
....."अनुयोगिकगन्धहस्तिभिरनुयोगधरप्रकाण्डैः। मैं इसका अनुवर्तन करूंगा तो यह मुझे आहार आदि देगा-यह
(व्यभा १७२५, १७२६ वृ) निश्रा है। यह मेरा शिष्य है, यह प्रतीच्छक है, यह मेरे पितृकुल
स्थिर सूत्रार्थपरिपाटी वाले, मोक्षाभिलाषी, राग-द्वेष मुक्त का है-यह उपश्रा है।
होकर व्यवहार करने वाले, अनुयोगधरों में गंधहस्ती के समान केरिसओ ववहारी, आयरियस्स उ जुगप्पहाणस्स।
प्रधान-इन गुणों से सम्पन्न व्यवहारी ही संघ में व्यवहार के लिए जेण सगासे गहितं, परिवाडीहिं तिहि असेसं॥
अधिकृत हैं। व्यवहारी के इन गुणों से हीन होने पर सूत्र आदि की सूयपारायणं पढम, बितियं पदुब्भेदयं।
__ महती आशातना होती है। तइयं च निरवसेसं, जदि सुज्झति गाहगो॥
४. व्यवहारी (आलोचनाह) की अर्हता गाहगआयरिओ ऊ, पुच्छति सो जाणि विसमठाणाणि।
अट्ठारसेहिं ठाणेहिं, जो होति परिणिट्ठितो।.. जति निव्वहती तहियं, ति तस्स हिययं ततो सुझे।
अट्ठारसेहिं ठाणेहिं, जो होति सुपतिट्टितो। अहवा गाहगसीसो, तिहि परिवाडीहि जेण निस्सेसं।
अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए॥ गहितं गुणितं अवधारितं च सो होति ववहारी॥
वयछक्ककायछक्कं, अकप्प-गिहिभायणे य पलियंको। पारायणे समत्ते, थिरपरिवाडी पुणो उ संविग्गे।
गोयरनिसेज्जण्हाणे, भूसा अट्ठारसट्ठाणे॥ जो निग्गतो वितिण्णो, गुरुहिं सो होति ववहारी॥
परिनिहित परिणाय, पतिढिओ जो ठितो उ तेसु भवे। (व्यभा १७०८-१७१२) अविदु सोहिं न याणति, अठितो पुण अन्नहा कुज्जा॥ शिष्य ने पूछा-व्यवहारी कैसा होता है ? आचार्य ने कहा
(व्यभा ४०७१, ४०७३-४०७५) जिसने युगप्रधान आचार्य के पास तीन परिपाटियों में समग्र श्रुत को जो अठारह स्थानों में परिनिष्ठित-उनका सम्यक ज्ञाता ग्रहण किया है, वह व्यवहारी है।
और सुप्रतिष्ठित-उनमें सम्यग् वर्तमान होता है, वह व्यवहार का प्रथम परिपाटी-पदच्छेदपूर्वक सूत्र का उच्चारण (संहिता)। व्यवहार करने योग्य है। अठारह स्थान ये हैंद्वितीय परिपाटी-पदविभागपूर्वक पारायण।
__ व्रतषट्क (प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह ततीय परिपाटी-चालना-प्रत्यवस्थानात्मक निरवशेष पारायण। तथा रात्रिभोजन से विरति), कायषटक (पथ्वी. अप. तेजस. वाय.
श्रुतग्रहण के पश्चात् ग्राहक आचार्य विषम पदों द्वारा शिष्य वनस्पति और त्रसकाय का संयम), अकल्प, गृहिभाजन, पर्यंक, की परीक्षा करते हैं। यदि शिष्य प्रश्नों का सही उत्तर देता है, उन पदों गोचरनिषद्या, स्नान और विभूषा का वर्जन। का हार्द जानता है, तो वह व्यवहारकरण के योग्य है। अथवा जिस
अपरिनिष्ठित मनि शोधि को नहीं जानता और अप्रतिष्ठित ग्राहक शिष्य ने तीन परिपाटियों से नि:शेष श्रुत को गृहीत, अनेक मनि अन्यथा व्यवहार करता है। बार अवधारित कर लिया है, वह व्यवहारी है।
बत्तीसाए ठाणेसु, जो होति परिनिहितो।... व्यवहार आदि ग्रंथों का पारायण सम्पन्न होने पर जो संविग्न
छत्तीसाए ठाणेहिं, जो होति सुपतिट्ठितो। के पास अपनी परिपाटी को परिपक्व करता है और गुरु की आज्ञा
अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए॥ से विहरण करता है, वह प्रमाणभत व्यवहारी होता है।
(व्यभा ४०७७, ४१२८)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org