________________
आगम विषय कोश-२
५३१
व्यवहार
ववणं ति रोवणं ति य, पकिरण परिसाडणा य एगटुं। यावत्... व्यवहर्त्तव्या व्यवहारक्रियाविषयीकर्तव्याः ।... हारो त्ति य हरणं ति य, एगटुं हीरते व ति॥ पंचविधेन व्यवहारेण करणभूतेन व्यवहरन् कर्ता यन्निष्पादअत्थी पच्चत्थीणं, हाउं एगस्स ववति बितियस्स। यति कार्यं, तद् व्यवहर्त्तव्यमित्युच्यते।"व्यवहर्त्तव्यकार्ययोगात् एतेण उ ववहारो, ... ॥ पुरुषा अपि व्यवहर्त्तव्याः।
(व्यभा १, २ वृ) ___ ""वपनं तपः-प्रभृत्यनुष्ठानविशेषस्य दानं "हरण
व्यवहारी व्यवहारक्रिया प्रवर्तक है, प्रायश्चित्तदायी है, मतिचारदोषजातस्य .."वपनशब्दस्य प्रदानलक्षणोऽर्थः ।
अत: वह कर्ता, व्यवहार करणभूत और व्यवहर्त्तव्य-व्यवहारक्रिया व्यवहारपरिच्छेद- कुशलो..."यस्य यन्नाभवति, तस्मात तत्
का विषयीभूत प्रायश्चित्तआदायी कार्यरूप है। जैसे कुंभ कहने से हृत्वा आदाय यस्याभवति तस्मै द्वितीयाय वपति प्रयच्छति....
कुंभत्रिक (कुंभ कार्य, कुंभकार कर्त्ता और मिट्टी करण) की सिद्धि स स्थेयव्यापारो व्यवहारः..."स्थेयपुरुषो विवादनिर्णयाय
होती है, (वैसे ही व्यवहार के कथन से व्यवहार, व्यवहारी और एक स्माद्धरति, अन्यस्मै प्रयच्छति, तस्मात्तद्व्यापारी
व्यवहर्त्तव्य का कथन हो जाता है)। वपनहरणात्मकत्वात् व्यवहारः। (व्यभा ३-५ वृ)
जो व्यक्ति जिस प्रायश्चित्त के योग्य है. वह प्रायश्चित्त विविध प्रकार से अथवा अर्हत्भाषित विधि के अनुसार जिसके द्वारा दिया जाता है, वह व्यवहार है। पांच प्रकार के वपन-तप आदि प्रायश्चित्त देना और हरण-अतिचारों का अपनयन
करणभूत व्यवहार से व्यवहार करता हुआ व्यवहारी जो कार्य करना व्यवहार है। वपन, रोपण, प्रकिरण और परिशाटन-ये चारों निष्पादित करता है, वह व्यवहर्त्तव्य है। व्यवहर्त्तव्य कार्य के योग एकार्थक हैं। हार, हरण और ह्रियते-ये एकार्थक हैं।
से पुरुष भी व्यवहर्त्तव्य है। ____ अर्थी और प्रत्यर्थी (याचक और प्रतियाचक) में विवाद
३. द्रव्य-भाव व्यवहारी : कसौटी होने पर व्यवहारपरिच्छेदकुशल (न्यायविशारद) मध्यस्थं पुरुष
दव्वम्मि लोइया खलु, लंचिल्ला भावतो उ मज्झत्था। एक से वस्तु लेकर जो उसकी नहीं है,दूसरे को देता है जिसकी
उत्तरदव्व अगीता, गीता वा लंचपक्खेहिं॥ वह है। इस प्रकार विवादनिर्णय के लिए एक से वस्तु का हरण
पियधम्मा दढधम्मा, संविग्गा चेवऽवज्जभीरू य। ___ आदान और दूसरे (मूल स्वामी) को वपन-प्रदान करना, यह
सुत्तत्थ-तदुभयविऊ, अणिस्सियववहारकारी य॥ हरणवपनरूप व्यापार व्यवहार है।
पियधम्मे दढधम्मे, य पच्चओ होइ गीतसंविग्गे। २. व्यवहारी-व्यवहार-व्यवहर्त्तव्य
रागो उ होति निस्सा, उवस्सितो दोससंजुत्तो॥ जेण य ववहरति मुणी, जं पि य ववहरति सो वि ववहारो।" अहवा आहारादी, दाहिइ मझं तु एस निस्सा उ।
(व्यभा ३८८८) सीसो पडिच्छिओ वा, होति उवस्सा कुलादी वा॥ मुनि जिसके द्वारा व्यवहार का प्रवर्तन करता है, वह
(व्यभा १३-१६) आगम आदि व्यवहार कहलाता है और जिस व्यवहर्त्तव्य का द्रव्य व्यवहारी के दो प्रकार हैंव्यवहार करता है, वह भी व्यवहार है।
१. लौकिक द्रव्य व्यवहारी-रिश्वत लेकर व्यवहार करने वाला। __व्यवह्रियते यद् यस्य प्रायश्चित्तमाभवति स तद्दान- २. लोकोत्तर द्रव्य व्यवहारी-अगीतार्थ की अवस्था में व्यवहार विषयीक्रियतेऽनेनेति व्यवहारः। (व्यभापी वृ प ३) करने वाला अथवा गीतार्थ अवस्था में भी लंचा का उपजीवी
ववहारो ववहारी, ववहरियव्वा य जे जहा पुरिसा।... होकर अथवा पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने वाला। ववहारी खलु कत्ता, ववहारो होति करणभूतो उ। भाव व्यवहारी के दो प्रकार हैंववहरियव्वं कज्ज, कुंभादितियस्स जह सिद्धी॥ १. लौकिक भाव व्यवहारी-मध्यस्थ भाव से व्यवहार करने वाला।
...व्यवहारी व्यवहारक्रियाप्रवर्तकः प्रायश्चित्तदायीति २. लोकोत्तर भाव व्यवहारी-अनिश्रित (निष्पक्ष) होकर व्यवहार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org