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आगम विषय कोश - २
अव्वोच्छित्तिणिमित्तं, जीयट्ठी वा समाहिहेतुं वा ।...... ( निभा १९५०३, १५०४)
जब मुनि का शरीर तीव्र वेदना से अभिभूत हो जाए तो वह समुत्पन्न दुःख को जानकर दीन या व्यथित न बने, प्रसन्न मन से समतापूर्वक उस दुःख को सहन करे ।
मुनि चार कारणों से रोग की चिकित्सा कर सकता है१. मैं श्रुत की परम्परा को अविच्छिन्न करूंगा।
२. दीर्घकाल तक संयम जीवन जीऊंगा।
३. ज्ञान - दर्शन - चारित्र - समाधि की साधना करूंगा। ४. समाधिमरण से मरूंगा ।
(वैयावृत्त्य करने के चार प्रयोजन हैं - १. समाधि पैदा करना । २. विचिकित्सा दूर करना, ग्लानि का निवारण करना। ३. प्रवचनवात्सल्य प्रकट करना । ४. सनाथता -- निःसहायता या निराधारता की अनुभूति न होने देना । - तवा भाग २ पृ ६२४)
१९. गीतार्थ - अगीतार्थ चिकित्सा : मंत्री- नौका दृष्टांत
तिविधे तेगिच्छम्मी, उज्जुग वाउलण - साहुणा चेव । पण्णवणमणिच्छंते, दिट्टंतो भंडिपोतेहिं ॥ जा एगदेसे अदढा उ भंडी, सीलप्पए सा तु करेति कज्जं । जादुब्बला संठविया वि संती, न तं तु सीलंति विसण्णदारुं ॥ जोगदे अढो पोतो, सीलप्पए सो उ करेति कज्जं । जो दुब्बलो संठवितो वि संतो, न तं तु सीलंति विसण्णदारुं ॥ संदेहियमारोग्गं, पउणो वि न पच्चलो तु जोगाणं । इति सेवंतो दप्पे, वट्टति न य सो तथा गीतो ॥ काहं अछित्तिं अदुवा अधीतं, तवोविधाणेसु य उज्जमिस्सं । गणं व नीइए य सारविस्सं, सालंबसेवी समुवेति मोक्खं ॥ .....त्रिप्रकारे आचार्योपाध्यायभिक्षुलक्षणे चिकित्स्यमाने गीतार्थे इति गम्यते" अथ प्रासुकमेषणीयं न लभ्यते "तथाभूते च दीयमाने स्फुटमेव निवेद्यते, इदमेवंभूतमिति । ...या भंडी मन्त्री तस्याः परिशीलनं कार्यते । यो ग्लानः सन्नेवमवबुध्यते, समर्थो भूतः सन् तीर्थाव्यवच्छेदं करिष्यामि ।" अहमध्येष्ये सूत्रतोऽर्थतश्च नीत्या सूत्रोक्तया सारयिष्यामि गुणैः प्रवृद्धं करिष्यामि । • (व्यभा १७८, १८० - १८३ वृ)
आचार्य, उपाध्याय और गीतार्थ भिक्षु की चिकित्सा चल
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वैयावृत्त्य
रही हो और उस समय प्रासुक एषणीय द्रव्य पर्याप्त न मिले, तो व्यापृत साधु को चाहिए कि वह स्पष्ट रूप से बता दे कि यह एषणीय है, यह अनेषणीय है। अगीतार्थ ग्लान भिक्षु यदि कहे कि मैं अकल्पनीय का सेवन नहीं करता तो सेवारत साधु यह प्रज्ञापना करे कि ग्लान यतनापूर्वक अकल्प्य का सेवन कर पश्चात् प्रायश्चित्त शुद्ध हो सकता है 1
मंत्री दृष्टांत - जिस गाड़ी का एक भाग सुदृढ़ नहीं होता, उस भाग का परिशीलन करने पर वह गाड़ी अपना कार्य करती है। संस्थापित होने पर भी जो दुर्बल है, उस विषण्ण काष्ठ वाली गाड़ी का परिशीलन नहीं किया जाता ।
नौका दृष्टांत - जिस नौका का कोई एक भाग श्लथ होता है, उसका परिशीलन करने पर वह कार्य करती है। उस नौका को संस्थापित करने पर भी यदि वह अपना कार्य करने में अक्षम है तो उसके विषण्ण काष्ठ का परिशीलन नहीं किया जाता है।
इसी प्रकार जिसको अपने आरोग्य में संदेह है, स्वस्थ होने पर भी स्वाध्याययोग आदि में समर्थ नहीं हो सकूंगा - ऐसा जानता हुआ गीतार्थ मुनि यदि अकल्प्य का सेवन करता है, तो वह दर्प प्रतिसेवना है। गीतार्थ को ऐसा नहीं करना चाहिए।
जो ग्लान यह चाहता या जानता है कि मैं स्वस्थ होकर • तीर्थ परम्परा को अविच्छिन्न करूंगा।
• द्वादशांग के सूत्र और अर्थ का अध्ययन करूंगा । • नाना प्रकार के तप उपधान में उद्यम करूंगा।
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सूत्रोक्त नीति से गण की सारणा करूंगा - उसे ज्ञान आदि गुणों से 'समृद्ध करूंगा। इनमें से किसी भी सूत्र का आलंबन लेकर चिकित्सा हेतु अकल्प्य का सेवन करने वाला सालंबसेवी मुनि ऋजुता से प्रायश्चित्त वहन कर मुक्त हो जाता है। २०. चिकित्सा की कालावधि : आचार्य, वृषभ......
छम्मासे आयरिओ, कुलं तु संवच्छराणि तिन्नि भवे । संवच्छरं गणो खलु, जावज्जीवं भवे संघो ॥ अथवा बितियादेसो, गुरुवसभे भिक्खुमादि तेगिच्छं ।'' गुरुणो जावज्जीवं "तेगिच्छं । वसभे बारसवासा, अट्ठारस भिक्खुणो मासा ॥ ............यः पुनर्भक्तविवेकं कर्तुं शक्नोति, तेन प्रथमतोऽष्टादशमासान् चिकित्सा कारयितव्या तदनन्तरं
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