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वैयावृत्त्य
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आगम विषय कोश-२
१. संविग्न-उद्यतविहारी। ५. संज्ञी-अविरत सम्यग्दृष्टि।
गच्छ में कुशल वैद्य या वैयावृत्त्यकर न हो तो निम्न क्रम २. असंविग्न-अनुद्यतविहारी। ६. अनभिगृहीत मिथ्यादृष्टि। से गृहस्थ आदि से चिकित्सा करवाई जा सकती है३. लिंगी-वेशधारी साध। ७. अभिगृहीत मिथ्यादृष्टि। गृहस्थ पिता, भ्राता या अन्य संबंधीजन (पहले स्थविर, फिर ४. श्रावक-अणुव्रतधारी। . ८. परतीर्थिक।
मध्यम, फिर तरुण) से, संबंधी न हो तो असंबंधी से। इनमें प्रथम पांच गीतार्थ और अगीतार्थ-दोनों प्रकार के होते . परतीर्थिक पिता आदि संबंधी से, जो स्थविर और अशौचवादी हैं और शेष तीन नियमतः अगीतार्थ ही होते हैं।
हो। वह न हो तो मध्यम या तरुण अशौचवादी से, उसके अभाव कुशल वैद्य से चिकित्सा करवानी चाहिए। कुशल संविग्न में स्थविर आदि शौचवादी से, संबंधी के अभाव में असंबंधी से। गीतार्थ हो तो उसी से, वह न हो तो असंविग्न गीतार्थ, वह भी न ० इनके अभाव में गृहस्थ माता, भगिनी, अन्य संबंधी। हो तो संविग्न अगीतार्थ आदि से चिकित्सा करवानी चाहिए। इस असंबंधी स्थविरा आदि। ० परतीर्थिकी स्थविरा आदि। प्रकार के क्रम-उत्क्रम को ही गति-आगति कहा गया है। इनमें ० श्रमणी-स्थविरा आदि। यह साधु संबंधी परपक्ष है। भी अऋद्धिमान की प्राथमिकता है। ऋद्धिमान के पास जाने में साधु समर्थ हो तो स्वयं चिकित्सा करे। साध-साध्वी के अनेक कठिनाइयां आ सकती हैं।
पारस्परिक वैयावृत्त्यकर स्थविर-स्थविरा हों तो चतर्लघ और इनमें संविग्न और असंविग्न-इन दो को तो उपाश्रय में तरुण-तरुणी हों तो चतुर्गुरु प्रायश्चित्त विहित है। लाना चाहिए। शेष छह के घर पर ही ग्लान को ले जाना चाहिए। १६. वैयावत्त्य के अपवाद ० वैद्य आने पर अभ्युत्थानविधि......
बितियपदं अणवट्ठो, परिहारतवं तहेव य वहंतो। गीयत्थे आणयणं, पुव्वं उढेितु होति अभिलावो।
अत्तट्ठियलाभी वा, सव्वहा वा अलंभंते॥ गिलाणस्स दायणं, सोहणं च चुण्णाइगंधे य॥
(निभा ३११६) ...गंडो ति फाडेयव्वं, तम्हि फालिए उसिणोदगादि
निम्न व्यक्तियों की सेवा नहीं की जातीफासुअं हत्थधोवणं दिज्जति। (निभा ३०३५ चू)
० जो अनवस्थाप्य तप या परिहारतप वहन कर रहा हो। गीताथ मुनि वैद्य को लेने जाते हैं और गुरु को वैद्य के आने ० जो अपनी लब्धि का खाता हो। उसे सर्वथा प्राप्ति न होने पर भी की पूर्वसूचना देते हैं। आचार्य पहले से ही उठकर चंक्रमण करने उसकी गवेषणा न करने वाल लगते हैं और वैद्य के निकट आने पर उससे बातचीत करते हैं।
१७. वैयावृत्त्य से गुरु प्रायश्चित्त लघु में परिवर्तित रोगी को स्वच्छ वस्त्र पहनाकर वैद्य को दिखाते हैं। स्थान मलिन हो तो उसे साफ कर पटवास आदि चूर्ण से वासित किया
वेयावच्चकराणं, होति अणुग्घातियं पि उग्घातं । जाता है। वैद्य रोगी के फोड़े आदि की शल्यक्रिया करे तो उष्णोदक
सेसाणमणुग्घाता अप्पच्छंदो ठवेंताणं॥ आदि प्रासुक द्रव्य उसे हाथ धोने के लिए दिए जा सकते हैं।
(व्यभा ७६७) १५. वैयावृत्त्य और परपक्ष
जो संघ के वैयावृत्त्य में प्रवृत्त है, उसे प्राप्त गुरु परिहारस्थान वेज्जसपक्खाणऽसती, गिहि-परतित्थी उ तिविधसंबंधी। को भी लघु परिहारस्थान में परिवर्तित कर दिया जाता है। जो प्राप्त एमेव असंबंधी, असोयवादेतरा सव्वे॥ तप का स्वच्छन्दता से निक्षेप करते हैं तो यदि वे लघु तप का वहन एतेसिं असतीए, गिहि-भगिणि परतित्थिगी तिविहभेदा। कर रहे हों तो उन्हें गुरु और गुरु तप का वहन कर रहे हों तो उन्हें एतेसिं असतीए, समणी तिविधा करे जतणा॥ गुरुतर तप दिया जाता है। अजाणं गेलण्णे, संथरमाणे सयं तु कायव्वं। १८. मुनि की चिकित्सा के हेतु वोच्चत्थ मासचउरो, लहु-गुरुगा थेरए तरुणे॥ णच्चुप्पतितं दुक्खं, अभिभूतो वेयणाए तिव्वाए।
(व्यभा २४३७, २४३८, २४४४) अद्दीणो अव्वहितो, तं दुक्खऽहियासए सम्मं॥
शद्ध है।
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