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आगम विषय कोश-२
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व्यवहार
जो बत्तीस स्थानों तथा छत्तीस गणों में परिनिष्ठित और लोकोत्तर भाव व्यवहर्त्तव्य-जो प्रायश्चित्त के लिए सदभाव से सुप्रतिष्ठित होता है, वह व्यवहार का प्रयोग कर सकता है। उपस्थित होता है, फिर चाहे वह गीतार्थ हो या अगीतार्थ। • बत्तीस स्थान-आचार्य की आठ सम्पदाएं, प्रत्येक सम्पदा के जो मुनि अवक्र-अकुटिल है, जो कारण समुपस्थित होने चार-चार प्रकार। (द्र गणिसम्पदा)
पर यतना से अथवा कदाचित् अयतना से प्रतिसेवना करते हैं, यदि ० छत्तीस गुण-अष्ट गणिसम्पदा के बत्तीस भेद तथा विनय- वे प्रियधर्मा और बहुश्रुत हैं, तो व्यवहर्त्तव्य हैं। अगीतार्थ को प्रतिपत्ति के चार भेद। (विनयप्रतिपत्ति-द्र आचार्य)
उपदेशपूर्वक दान प्रायश्चित्त दिया जाता है। ५. लौकिक-लोकोत्तर व्यवहर्त्तव्य
जो मनि सप्रयोजन या निष्प्रयोजन यतना या अयतना से लोए चोरादीया, दव्वे भावे विसोहिकामा उ।
प्रतिसेवना कर पुनः उस दोष का सेवन न करने के लिए संकल्पित जाय-मयसूतगादिसु, निज्जूढा पातगहता य॥
होता है, तो वह भी भाव व्यवहर्त्तव्य है।
जो निष्कारण प्रतिसेवी होता है, वह तथाविध कार्य समुत्पन्न फासेऊण अगम्मं, भणाति सुमिणे गतो अगम्मं ति।
होने पर करुणाशून्य और निरपेक्ष हो जाता है। प्रतिसेवना कर मैं एमादि लोगदव्वे, उज्जू पुण होति भावम्मि॥
अपने दोषों को आंशिक रूप से अथवा पूर्णरूप से छिपा लूंगा - (व्यभा १७, १८)
ऐसा चिंतन करने वाला द्रव्य व्यवहर्त्तव्य है। ०लौकिक द्रव्य व्यवहर्त्तव्य-चोर, पारदारिक आदि। जन्म सूतक, मृत्यु सूतक आदि में भोजन करने के कारण ब्राह्मणों द्वारा बहिष्कृत
० अव्यवहर्त्तव्य : कुंभकार दृष्टांत व्यक्ति तथा माता-पिता आदि की हत्या कर अपना दोष स्वीकार
सो वि हु ववहरियव्वो, अणवत्था वारणं तदन्ने य। नहीं करने वाले व्यक्ति भी लौकिक द्रव्य व्यवहर्त्तव्य हैं।
घडगारतुल्लसीलो, अणुवरतोसन्नमज्झ त्ति॥ ___ कोई ब्राह्मण अगम्य (पुत्रवधू , चंडाल-स्त्री आदि) का
(व्यभा २५) स्पर्श कर प्रायश्चित्त के समय मायापूर्वक कहता है-'मैंने स्वप्न में द्रव्य व्यवहर्त्तव्य भी व्यवहर्त्तव्य है क्योंकि उससे अनवस्था अगम्य का स्पर्श किया है, वह भी लौकिक द्रव्य व्यवहर्त्तव्य है। (पुनः पुनः अकृत्य के आचरण) का निवारण होता है। उसे देख ० लौकिक भाव व्यवहर्त्तव्य-जो अपनी विशोधि का अभिलाषी अन्य साधु भी अकृत्य से निवृत्त हो जाते हैं। जो शिक्षा देने पर भी है और ऋजुता से अपना अपराध प्रकट करता है।
अकृत्य से उपरत नहीं होता, वह अवसन्न और पुनः पुनः 'मिच्छा परपच्चएण सोही, दव्युत्तरिओ उ होति एमादी। मि दुक्कडं' करने वाले कुंभकार के तुल्य स्वभाव वाला है। गीतो व अगीतो वा, सब्भावउवट्ठितो भावे॥ एक बार कुंभकार की शाला में मुनि ठहरे। आचार्य ने अवंकि अकुडिले यावि, कारणपडिसेवि तह य आहच्च। शिष्यों से कहा-कुंभकार के बर्तन इतस्ततः बिखरे पड़े हैं। सबको पियधम्मे य बहुसुते, बितियं उवदेस पच्छित्तं॥ अप्रमत्त रहना है । एक शिष्य प्रमादी था। वह कुंभकार के भाडों को अधवा कज्जाकज्जे, जताऽजतो वावि सेवितुं साधू। तोड़कर 'मिच्छा मि दुक्कडं' का उच्चारण कर लेता। बार-बार सब्भावसमाउट्टो, ववहरियव्वो हवइ भावे॥ ऐसा करने पर कुंभकार ने मुनि के कान पकड़कर सिर पर टकोरा निक्कारण पडिसेवी, कज्जे निद्धंधसो य अणवेक्खो। मारा और 'मिच्छा मि दुक्कडं' कहा। मुनि बोला-तुम मुझ देसं वा सव्वं वा, गूहिस्सं दव्वतो एसो॥ निरपराध को क्यों पीटते हो? कुंभकार ने कहा-तुमने मेरे भाजन
(व्यभा १९, २०, २३, २४) तोड़ डाले। मुनि बोला-मैंने 'मिच्छा मि दुक्कडं' कर लिया। ० लोकोत्तर द्रव्य व्यवहर्त्तव्य-शोधि को परप्रत्ययिक मानने वाला
कुंभकार बोला-मैंने भी 'मिच्छा मि दक्कडं' कर लिया। मुनि यह सोचकर शोधि करता है कि मेरे द्वारा आसेवित अनाचार ६. व्यवहार के पांच प्रकार : प्रधानता-गौणता अन्य साधु ने जान लिया है, अतः मुझे आलोचना करनी चाहिए। पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं जहा-आगमे सुए आणा
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